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अरविन्द ठाकुर

झंझटिया बहु (लघुकथा)

झंझटियाक मूल नाम झंझटिया नहि रहए।

पिता अनूपलाल सुरुज बाबूक हरबाह रहथिन सुरुज बाबूक एकटा भगिनमानक नाम पर ओकर नाम राखने रहथिन कमल कुमार। किन्तु कमल कुमार देह-हाथ होइतहि एहन भारी खच्चर निकलल जे बात-बात पर जेकरा-तेकरा सं ढाही लेबाक लेल, लैत रहबाक लेल सदैव उद्धत। केकरो सं ओकर पटरी बैसबे नहि करए। रोजक लड़ाइ-झगड़ा, रोजक हाथापाइ, रोजक गल्लम-गल्ला। कहियो माथ फोड़बैने घुरए, कहियो ठेहुन फोड़बैने कहितो दांत तोड़बैने। एकर अहि लक्षणसभक चलते एकर एकतुरियासभ एकरा झंझटिया कहए लागलए कालान्तर मे ओकर परिवार सेहो अहि नाम कें स्वीकार कए लेलक, मूल नाम हेराए गेलए कमल कुमार झंझटियाक नाम सं चिन्हल जाए लागल।

समय अएलए। झंझटियाक बियाह भेलए। कनियां अएलए ओकर टोलक जनानीसभक मुंह पर एकेटा कथा रहए' जेहने झंझटिया, तेहने बहु! हे भगवान! एहन करूप स्त्री आइ तक नहि देखल। विधाता एकरा खोंचहा करची सं बनैने छथि जेना!'

अहि कनियांक नैहर मे जे नाम रहल हुअए, सासुर मे 'झंझटिया बहु' नाम सं प्रसिद्ध भेल। बियाह बादक किछु दिन, किछु हफ्ता, किछु महिना ठीक-ठाक चललए, तेकर बाद रोजक उठौनाबला घोल-पचक्का शुरू भेल। कोनो एहन दिन नहि जाइ जे दुनू परानी मे झंझट नहि होइ। से झंझट एहन-ओहेन नहि, भिनभिन करैत कोनो एक पक्ष पहिने हल्लुक-सन गारि-बात पर उतरए तेकर बाद रांड़ी-बेटखौकी होइत झोंटा-झोंटी तक पहुंच जाइ। घरक लोकक कथे की, सौंसे टोल मे गर्दमगोल भए जाइ। एकर कोनो समय सेहो निर्धारित नहि रहए। कहियो भोर होइतहि शुरू, कहियो दुपहरियाक जोग देखैत, कहियो सांझक दिया-बाती पहर मे, कहियो रातिक प्रथम पहर, कहियो मध्य रात्रीक स्तब्ध पहर कें चिर्रीचोथ करैत। कालान्तर मे झंझटिया झंझटिए रहल, किन्तु झंझटिया-बहुक संग अनेकानेक विशेषणसभ जुड़ैत चलि गेलए कोढनी, अलबटाह, नट्टिन आदि-आदि। बियाहक चारि-पांच बरस बितलाक बादो जखनि ओकरा कोनो संतान नहि भेलए ओकरा संग एकटा विशेषण और जुड़ि गेलए बांझ।

एकदिन खेत पर कमठाउन करैत स्त्रीगणक गपक क्रम मे मेनहाबाली कहलकए 'अहि मौगीक छाती पर दूधक थैली छेबे नहि करए एकरा बाल-बच्चा कतए सं बिऐतए!'

झंझटिया झंझटिया-बहु दुनूक लेल जर-जमानाक एहेन-एहेन उखाहीसभ धनि-सन।

झंझटिया कें जन-मजूरीक काज भेटब मुश्किल रहए। जेतहि जाइ, अपन संगी मजूरसभक संग कोनो ने कोनो झंझट कए लिअए, कोनो ने कोनो फसाद ठाढ कए दिअए, कतहु पोसिन्दहि सं भीड़ि जाइ। तें एना होइ जे धपचट मे दू-तीन दिनक काज भेटल महिनाक छब्बीस-सत्ताइस दिन बिना कोनो काजक। झंझटिया बहु ओकरहु सं सेस्सर। खेत-खरिहानक काज करबाक प्रति कोनो रूचि नहि। टोलक आन स्त्रीगण जकां बोनि कमाएब ओकर स्वभावे मे नहि। घर मे खेनाइ तक बनैनाइ ओकरा भारी बुझाबए। कोनो अड़ोसनी-पड़ोसनी सं ने कोनो गपक संबंध ने कोनो काम-काजक, तें अपन टुटली मढहियाक भुइयां पर पटिया बिछाए कए ओंघराइल रहैत रहए। आधा सं बेसी मास उपासे जाति रहए, तें खाइको बनैबाक झंझट कमे होइ। एक दिन बनल बचल रहल ओएह बसिया दू दिन-तीन दिन चलए, नहि बचए जै गोबर्धन।

से झंझटिया-बहु एक दिन अचरजक काल कएलक। चारि-पांच बरस बितलाक बादो जखनि ओकरा बाल-बच्चा नहि भेलए अड़ोसनी-पड़ोसनी सं बतिआबए लागल। से बात की झंझटियाक दोसर बियाहक लेल लड़की खोजबाक निहोरा। अड़ोसनी- पड़ोसनी सुनए सुनि कए मने-मन हंसए। मुंह पर किछि कहबाक साहस रहए नहि किन्तु परोक्ष मे ओकर निहोराक गप कए ठहक्काबाजी करए, ठिठोली करए। एहन झंझटिया अकरब मनिसा, तहि पर सी नंबरक कोढनी एकटा बहु, तेकरा के पपिआहा अपन बेटी देतए? किछु दिन तक झंझटिया-बहु अहि भरोस मे रहल जे टोलक अड़ोसनी-पड़ोसनीसभ ओकर मदद करतए किन्तु जल्दिए ओकरा अहि बातक भान भए गेलए जे ओकरासभ सं कोनो आस राखब व्यर्थ छै।

एक दिन, जहि दिन आनहि दिन जकां सुरुजदेव उगल रहथि, आनहि दिन जकां भोर दुपहर भेल रहए, तहि दिनक सांझ मे झंझटिया-बहुक अड़ोस-पड़ोस, टोलक लोग अपन आंखि चियारि-चियारि, पिपनी कें बेर-बेर रगड़ि-रगड़ि कए आश्चर्यचकित भेल झंझटियाक टूटल मढहिया मे एकटा नवकी कनियां कें आबैत, प्रवेश करैत देखलक। नवकी कनियांक अएबाक खबरि काने-कान सौंसे गाम मे बात पसरि गेलए। पुरुषलोकनि अपन-अपन गोल बनाए दुरहि सं प्राप्त अहि अचरजकारी घटना पर चर्चा करथि, चर्चा मे विस्मय व्यक्त करथि, विभिन्न तरहक अनुमान लगाबथि अहि अन्हेर पर टीका-टिप्पणी करैत श्लील-अश्लील हंसी-मजाक करथि। जनानीसभक अलगे ताल, अलगे भांज रहए। ओसभ झंझटिया घर पर मजमा लगाए देलक। ओकरासभ कें कोनो रोक-टोक रहए नहि। आबए, मढहिया मे हुलि जाइ,कनियां कें देखए अपन फाटैत कोंढ कें फाटए सं बचैबाक लेल दुनू हाथ सं अपन छाती पकड़ने, देखौंस लेल अपन मुंह बिचकाबैत अपन-अपन घरक डगर धए लिअए।

"हओ मालिक, अन्हेर छै! नबकी कनियां झंझटिया-बहुक ममिऔत बहिन छिअए। बच्चा मे मलेरिया-कालाजार भेल रहए, मरैत-मरैत बचल रहए। सुखए कए टटाएल छै सौंसे देह मे हड्डिए-हड्डी। छै कनियां भक-भक गोर मुला बिमरिया देह छै। मौगी गाभ केना धरतए धरतए ओकरा सम्हारि केना सकतए?" मरौनावाली कहलकए।

किन्तु दुनियां अचरज सं भरल छै झंझटियाक टोल  कि झंझटिया सेहो इएह दुनियांक हिस्सा मे रहए। से अचरज भेलए। साल बीतैत-बीतैत झंझटियाक नबकी कनियां, जे सौंसे टोल मे 'मरलहिया' नाम सं प्रसिद्धि पएने छल, गाभहु धएलक, ओकरा सन्हारिओ लेलक एकटा पुत्रक रूप मे ओकरा धरा-धाम पर उतारिओ देलक।

अचरज एतय खतम नहि होइ छै, एतय सं शुरू होइ छै।

एकर बादबला अचरज एक दिन हमरा घर तक पहुंचल।

एक दिन बरामदा पर सं बैसल-बैसल देखलिअए जे एकटा सपाट छाती बाली परम कुरुपा स्त्री हमर परिसल मे घुसल, हमरा देखि  माथ परक साड़ीक छोर कें कनि निच्चा खिंचलक, हमरा लग आबैत-आबैत अपन तानल घोघ कें कनी और तानलक कनी-कनी हिचकिचाइत, कनी-कनी धखाइत हमर बगल सं होइत डेढिया दके हमर आंगन दिस पैसि गेल।

बाद मे गृहस्वामिनी बतैलनि जे झंझटिया-बहु रहए। काज खोजबाक लेल आएल रहए। हमर घरक काजबाली एमहर किछु दिन सं बहुत अगराएल-मगराएल जकां रहए। कोनो दिन आबए, कोनो दिन नहि आबए। कोनो दिन भोर मे आबए सांझ मे नागा कए दिअए। गृहस्वामिनीक मन ओकरा पर लोहछाएल रहनि। ओहि लोहछल मनहिक परिणाम रहए जे जानितहु जे झंझटिया-बहु परम बेलुरि छै, ओकरा काज पर राखब गछि लेने रहथिन। अचरजक संग संयोग सेहो आबए छै।

एकर बादक किछु दिन गृहस्वामिनीक शिकायती-विलाप सुनैत बीतल झंझटिया-बहु परम अकरब छै, बासनसभ कें नीक सं नहि मांजए छै, खरकटलहि छोड़ि दए छै, बाढनि दए छै कात-कोनटाक गरदा-माटि ओहिना छुटल रहि जाइ छै, पोछा दए छै फर्श पर मटिआएल डिडिरसभ पड़ि जाइ छै, अनसोहांत लागैत रहए छै, एकरा काज पर राखब बड़का भारी भूल भेल, आदि-आदि। बासनक नहि किन्तु अपन बहरुका स्टडी-रूमक झाड़ू-पोछाक झंझटिया-बहुक करतबसभ देखितहि रही। देखी, देखिकए मनहि-मन कनी-मनी पिनपिनाइ सोचि चुप रहि जाइ जे हमर विभाग नहि थिक, अनेरे मगजपच्ची किऐ करी।

किन्तु पनरहिया बीतैत-बीतैत गृहस्वामिनीक शिकायती बोल क्रमशः घटैत गेलनि मास बीतैत-बीतैत एकदम्मे बंद भए गेल। तेकर बाद हुनक श्रीमुख सं यदा-कदा झंझटिया-बहु लेल प्रशंसाक बोल सेहो आबए लागल। अहुना एतेक दिनक वैवाहिक जीवन मे अहि बातक अनुभव हम कैए गेल छी जे जं कोनो बात, कोनो वस्तु सं गृहस्वामिनी कें शिकायत नहि छनि एकर साफ-साफ अर्थ अछि जे ओहि बात, ओहि वस्तु सं संतुष्ट छथि।

गृहस्वामिनी गामक महिलालोकनिक लीडराइन छथि तें हमरा घर मे महिलालोकनिक अबरजात लागलहि रहैत अछि। भितरका मोहाल मे हुनकासभक लेल चायक पानि सदैव चढलहि रहैत अछि। जानकारी भेटल जे एहन प्रत्येक अवसर पर आब अपन नियत काजक अतिरिक्त झंझटिया-बहु झट दए चाय बनैबाक लेल अगुआए जाइत अछि तेकरा कप-प्लेट मे राखि सभ कें सादर परोसि सेहो आबैत अछि। हमर घर अएनिहारि महिलालोकनि घरक साफ-सफाइ देखथि, ओकर संज्ञान लेथि झंझटिया-बहुक बनाएल चाय पीबि आनंदित होथि। अहि सं झंझटिया-बहुक यश हमर घर सं होइत बाहरहु-बाहर पहुंचलए ओकरा और दू-तीन घरक काज भेट गेलए। केकरहु निराश नहि कएलक तीनू-चारू घरक काज मन लगाए कए करए लागल। काज ओकरा और भेटैत रहए किन्तु तेकरा लेल ओकरा समय नहि बचैत रहए। भरि दिन अहि घर सं ओहि घर ओहि घर सं अहि घर, एक क्षणक फुरसत नहि। हमर गृहस्वामिनी चकित भेल कहथिन जे कतेक पानि छै अहि मौगीक देह मे जे एतेक घरसभ मे खटनीक बादहु झंझटिया-बहु टन-टन करैत रहैत अछि, थकनीक नाम नहि जं थकनी छै ओकरा देखार नहि हुअए दैत अछि।

समय अहिना बीतैत गेलए।

एक दिन देखलिअए जे झंझटिया-बहु स्कूल-ड्रेस मे सुसज्जित एकटा गोर-नार छौड़ाक स्कूल-बैग अपन कंधहा पर राखने ओकर हाथ पकड़ि हमर घरक सामनेक सड़क सं चलि जाइत रहए। स्वाभाविक रूप सं जिज्ञासा भेल, केलिअए। गृहस्वामिनी विहुंसैत कहलनि 'सभ चमत्कारक मूल मे वएह छौड़ा अछि' हमरा जनाएल गेल जे छौड़ा झंझटिया-बहुक सत-बेटा कहिऔ कि बहिन-बेटा छिऐ। अपन समस्त कमएलहा ओकरहि पर खर्च करैत अछि। नीक-नुकुत कपड़ा-लत्ता, नीक पौष्टिक भोजन ओकरा एकदम साफ-सुथरा राखब एकर प्राथमिक कर्तव्य भेल छै। चारि-पांच घरक चौका-बासन, झाड़ू-पोछा करितहु ओहि छौड़ाक कोनो काज नागा नहि हुअए दए छै।

' एकटा बात बुझलिऐ? ओहि छौड़ाक नाम ओही स्कूल मे लिखबएने छै जहि मे अहांक पोता-पोती पढैत अछि।' कहैत गृहस्वामिनीक गप मे गर्वक भाव रहनि।

दुनियां अचरज सं भरल छै अहि अचरजक कोनो अंत नहि।

एक दिन मन मे अकस्मात एकटा प्रश्न जागल। गृहस्वामिनी कें हाक देलियनि। अएलीह पुछलियनि 'झंझटियाक की हाल छै?'

गृहस्वामिनी तेना कए हमरा दिस ताकलनि जेना हम कोनो प्रचण्ड बुड़ि होइ। ठोर कनी वक्र भेलनि ओलहनक स्वर मे कहलनि ' लिखए-पढैक चक्कर मे अहां कें किछु बुझलहु रहए जे अहि दुनियां मे की-की भए रहल छै?

फेर बजलीह 'बेटा भेलाक बाद झंझटिया किछु दिन तक घरहि मे गुप्त-वास धए लेलक। ने किछु बाजए, ने भुकए। रहए-रहए उठि कए एक बेर-दू बेर-बेर-बेर बेटाक मुंह देखि आबए। बहुत दिनक बाद एक दिन घर सं बहराएल सड़क पर दौड़ए लागल। तेकर बाद दौड़ब ओकर नित्य-क्रिया भए गेलए। लोक जखनी ओकरा देखए, दौड़तहि देखए बुझए जे झंझटिया बताह हएबाक डगर धए लेलक अछि।'

'ठीके बताह भए गेलए की?' हमर व्याकुल उत्सुकता हुनका टोकलकनि।

'सुनिऔ !' बजलीह।

फेर हुनक स्वभाव सं विपरीत हुनक ठोर पर एकटा खूब मीठगर, खूब आह्लादकर मुस्की अएलनि, कहलनि 'पुलिसक भर्ती निकलल रहए। झंझटिया ओहि मे जाए कए हिस्सा लेलक। दौड़ैक प्रतियोगिता मे सौंसे जिलाक प्रतिभागीसभ मे औवल रहल। पहिनुक सेलेक्शन ओकरे भेलए। अखनि कोनो थाना नहि भेटलए ए। अखनि पुलिस-लाइन मे ड्यूटी भेटल छै। बुझलिऐ, कालिदास जी !'

हमर अचरज सं बाबल मुंह देखैत देखि कए आनन्ददायी-बदमाशीक हंसी हंसैत हमर गृहस्वामिनी अंगना दिस चलि गेलीह।

  

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