कुमार मनोज कश्यप
लघुकथा-जलफाँफी
दवाई दोकान पर साँझ-पहर के भीड़ तs ओहू दिन सामान्ये जकाँ छलैक; मुदा किछु खास छलैक तs ओहि पाँच-छः साल के नेना के दवाई-दोकानदार तक अपन बात पहुँचेबाक प्रयास जाहि मे ओ बेर-बेर निष्फल भs रहल छलैक। ओ कतबो छड़पबाक प्रयास करैत छल मुदा दोकानक काउण्टर तक नहिं पहुँच पबैत छल। आ तैं दोकानदारक ध्यान अपना दिस आकृष्ट करबा मे बारम्बार असफल भs रहल छल। सभ गहिंकी 'पहिले हम' के प्रयास मे छल। ओकरा दिस के ध्यान देओ। मुदा एक जन के ध्यान तखन गेलै ओकरा दिस जखन ओहि नेना के छड़पबाक प्रयास मे ओकर हाथक बैग खसैत-खसैत बचलै। ओ खौंझा गेल - "हे की छियौ ? कियै एना बानर जकाँ छड़पै छैं ? संच-मंच ठाढ़ रहबैं से नहिं होई छौ ?"
- "हमरा अचरज कीनय आयल छी " - संयत स्वर मे बाजि ओ नेना अपन मुट्ठी खोली देने रहै जाहि मे किछु सिक्का छलै।
- "अचरज ???!!!!!" सभक मुँह सs एक्के बेर यैह शब्द बहरेलै।
- " हँ। यैह कहलकै डाक्टर ……जे हमर भैया के अचरजे बचा सकैत छै। तैं हम अपन चुकियाक सभ टा पाई लs कs अचरज लई लै एलहुँ हैं। जल्दी सs अचरज दs दिय हमरा...... भैया के खुएबै तs ओ नीके भs जेतै! माय-बाबू सभ बड़ कनैत छै।"
क्षणे मे पूरा दोकान मे मरघट सन सुन्न पसरि गेल छलै। मुँह सभक अवाक रहितो आँखिक कोर छल-छला गेल रहै ।
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