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जगदीश प्रसाद मण्डल

सुचिता (धारावाहिक उपन्यास)

'सुचिता' धारावाहिक रूपेँ छपब प्रारम्भ भेल 'मिथिला दर्शन'मे, जे पहिने प्रिंटमे छपब बन्द भेल आ मात्र पी.डी.एफ. मे ई-प्रकाशित हुअय लागल आ फेर सेहो बन्द भऽ गेल। आ तेँ 'सुचिता'क सेहो छपब/ ई-प्रकाशित हएब बन्द भऽ गेल। अही आलोकमे ई उपन्यास धारावाहिक रूपेँ ई-प्रकाशित कएल जा रहल अछि।- सम्पादक।

दोसर पड़ाव
दिनक तीन बजे। विलासदेव सुति उठि कऽ हाथ-मुँह धोइ दरबज्जापर बैसबे कएल छला कि सुखदेव लोटामे पानि, कटोरीमे पीसल भाँग नेने पहुँचलैन। कटोरीमे राखल भाँगकेँ विलासदेव अपन हाथक आँगुरक चुटकीसँ देखए लगला जे भाँगक पीसान नीक अछि कि नहि। किए तँ विलासदेवकेँ ई बुझल छैन जे भाँगक नीक पीसान तखन मानल जाइए जखन ओ पानिमे अलैग जाइए। माने ई जे भाँगक जेहेन पीसान होइए तेहेन ओइमे नशाक मात्रा ओते बेसी होइए। चुटकीसँ देखला पछाइत विलासदेव बुझि गेला जे भाँगक पीसान नीक अछि। तहीकाल विलासदेवक लंगोटिया संगी निशाकान्त सेहो पहुँचला।
निशाकान्त आ विलासदेव संगे-संग गामक स्कूलमे पढ़ने छैथ। दुनूक जन्म सुभ्यस्त परिवारमे भेने नोकरी-चाकरीक खगता नहियेँ छेलैन, तँए आगू पढ़बकेँ ओते जरूरी दुनूक पिता नहि बुझलैन। तँए आगू नहियेँ पढ़लैन। अपन जमीन-जत्थाक कागज-पत्तर देखब, महाजनीक बही-खाताक हिसाब-बारी करब, बस एतबे खगता छेलैन।
पिताक अमलदारीमे जहिना विलासदेवक तहिना निशाकान्तक परिवारमे महाजनीक कारोबार चलैत रहैन। माने रूपैओ-पैसा आ अन्नो-पानिक सूदि-सबाइ दुनू परिवारक खानदानी पेशा छल। ओना, भैयारीमे विलासदेव असगरे छैथ मुदा निशाकान्त तीन भाँइक भैयारीमे छैथ। पिताकेँ मुइला पछाइत निशाकान्तक परिवारमे सम्पैतिक बँटवारा लऽ कऽ तेहेन विवाद उठल जे महाजनीक संग-संग आधासँ बेसी जमीनो मुकदमेवाजीमे चलि गेलैन। मुदा विलासदेवकेँ से नहि भेलैन। असगर भैयारी रहने दियादी विवाद नहि उठलैन। निशाकान्तकेँ देखिते विलासदेव बजला-
“आउ-आउ भयार..!”
निशाकान्त बजला-
“भयार, की हाल-चाल अछि?”
विलासदेव बजला-
“हाल-चाल की रहत..! समये तेहेन दुरकाल भऽ गेल अछि जे सदिखन मनमे अबैए- एहेन जिनगीसँ मरबे नीक। की समय छल आ अखन की भऽ गेल से बुझिये ने पेब रहल छी..!”
तैबीच सुखदेवकेँ आगूमे ठाढ़ देखि विलासदेव मुँह घुमाकऽ बजला-
“बौआ, एतबे भाँगसँ काज नहि चलतह। जेते अनलह तेते आरो नेने आबह। तैबीच हम दुनू भयार गप-सप्प करै छी।”
पिताक बात सुनि सुखदेव मने-मन विचारलक जे अपना-ले जे रखने छी माने आधा पिता-ले अनने छल आ आधा अपना-ले जे रखने छल, ताबे सएह आनिकऽ दऽ दइ छिऐन आ ताबत पत्तीकेँ पानिमे भीजैले दऽ देबइ। बिनु भीजल पत्तीकेँ पीसलासँ ओ रस थोड़े औत जे भीजलमे अबैए। सएह केलक।
भाँगक गोला देखि विलासदेव सुखदेवकेँ कहलखिन-
“बौआ, अपने ने ओहिना भाँग खा लइ छी, मुदा जखन दरबज्जापर भयार चलि एला तखन ओहिना खाएब उचित हएत। कनेक दूधो आ चीनियोँ नेने आबह। पाकल केरा तँ घरमे नहियेँ हेतह। तइ ले अनेरे चौकपर कथीले जेबह। चीनियेँ-दूधसँ काज चला लएह।”
पिताक बात सुनि सुखदेव आँगनसँ दोसर लोटामे दूध आ चीनीक डिब्बा आनि भाँग घोड़लक। दुनू लोटा भाँग, दुनू भयार माने विलासोदेव आ निशोकान्त पीब लेलैन। भाँग पीब ढकार करैत विलासदेव बजला-
“बौआ सुखदेव, दू कप चाह नेने आबह।”
ओना, चाहक नाओं सुनि निशाकान्त कने तारतम्य करए लगला मुदा बुझल रहबे करैन जे बिनु चाह पीने थोड़ेक देरीसँ भाँग अपन रंग अनैए मुदा चाह पीने से नहि होइए, लगले रंग आबि जाइए।
सुखदेवक हाथमे चाहक कप देखि विलासदेव बजला-
“बौआ, चाह रखि एकबेर आरो आँगन जा आ पानक सभ समचा आनि ऐठाम रखि दहक, भऽ गेलह तोहर छुट्टी। पछाइत हम दुनू भयार गप-सप्प करैत रहब।”
पानक सभ समान सुखदेव आनि पिताक आगूमे रखि अपन भाँगक ओरियानमे चलि गेल। तैबीच दू-दू घोंट चाह दुनू गोरे पीब लेलैन। भाँगक रंग कनी-कनी दुनूक मनमे मुड़ियारी दिअ लगल रहैन। जइसँ दुनूक मन थोड़ेक फुहराम सेहो हुअ लगलैन। तेसर घोंट चाह पीब विलासदेव बजला-
“भयार, की जुग-जमाना छल आ अखन की भऽ गेल। होइए जे एहेन जिनगीसँ मरबे नीक..!”
निशाकान्त कचहरिया लोक। माने कोट-कचहरीक आबा-जाहीसँ जहिना बजै-भुकैक ढंग बदैल गेल छैन तहिना बोली-वाणीक शिकारी सेहो बनियेँ गेल छैथ। मुदा से विलासदेव नहि छैथ। कोट-कचहरीसँ कहियो भेँट नहि भेल छैन, भेँटो केना होइतैन, ने कहियो एकोटा केसमे मुद्दई बनि ठाढ़ भेला आ ने मुद्दालह बनला। मुदा निशाकान्त अपन भैयारीक विवादमे कोट-कचहरी जाइत-अबैत पक्का खेलाड़ बनि गेल छैथ। माछ फँसबैक घुमौआ जाल जकाँ भाषाक घुमौआ जाल फेकैत निशाकान्त बजला-
“भयार, कहलो गेल अछि ने जे ‘वंश बढ़ै तँ बक्खो हुअए।”
जिज्ञासा करैत विलासदेव बजला-
“से की भयार?”
विलासदेवक जिज्ञासा देखि निशाकान्त बुझि गेला जे जाल सुतरल। जहिना वेपारी सभ अपन पूजी लगा पहिने गहिंकीक मन मोहैए, माने नमुना देखा-देखा कऽ पटियबैए, तहिना निशाकान्त अपन समांग सबहक निन्दा करैत बजला- “भयार, जहिना बेसी समांग बढ़लासँ परिवारमे अगराही लगैए, जेना हमरा परिवारमे लागल तेना तँ भगवान अहाँकेँ नहि केलैन। केतेक सुन्दर परिवार अहाँक अछि। बेटा आई.ए.एस. कऽ लेलैन। आब की चाही। ‘बढ़हि पुत्र पिताक धर्मे..।’ अहीं सन-सन धरमात्माक परिवारमे ने राधारमण सन बेटाक जन्म होइए।”
ओना, राधारमणपर विलासदेवक मन भीतरसँ जरल छेलैन्हे मुदा आगूमे चाह-पानक आकर्षण अपना दिस खींच नेने छेलैन। ताबे तक दुनू गोरे आधासँ बेसी चाहो पीब नेने छला। जइसँ भाँगक लहकी, सेहो मनमे लहकए लगल छेलैन। परिवारक विचार विलासदेवक मनसँ हटि चाह दिस आबि गेल छेलैन। बजला-
“भयार, अपना सभ की चाह पीबै छी, लोककेँ पीबैत देखै छिऐ तँ मनकेँ बुझबै छी। एकबेर सासुर गेल रही। मैझला सार मलेटरीमे रहैए ओ गाम आएल छल। ओ जे चाह पीयौलक ओहन चाह ने जीवनमे कहियो पीने छेलौं आ ने भरिसक कहियो पीब।”
विलासदेवक बात सुनि निशाकान्त बजला-
“भयार, ठीके अहाँ कहै छी। ऐठाम, अपना सबहक गाम-घरमे जे चाहपत्ती अबैए ओ कोनो चाहपत्ती छी, जहिना धानमे खखरी होइए तहिना चाहक खखरी छी। एकबेर असाम गेल रही। ओइठाम बाधक-बाध चाहक खेती देखलिऐ। अपना सब जकाँ कि ओकरा सबहक बाध अछि। पहाड़ी इलाका छै। बड़का-बड़का पहाड़ो अछि आ खेतो-पथार कि अपना सभ जकाँ चौरस अछि। ओम्हर ऊपर-निच्चाँ, ले-ऊँच खेत सभ छै, जइमे चाहक खेती होइए।”
निशाकान्तक बात सुनि विलासदेव जिज्ञासा करैत बजला-
“सुनै छी, ओम्हर–आसाम–मे अपना सभसँ बेसी बरखो होइए?”
विलासदेवक विचारमे रंग भरैत निशाकान्त बजला-
“से कि कोनो चोराएल बात सुनने छी। अपना सबहक के कहए जे दुनियाँमे सभसँ बेसी बरखा ओइठाम होइए।”
‘बरखा’ सुनि विलासदेव बजला- “तखन तँ अपना सभसँ नमहर-नमहर धारो-धूर हएत आ पनियाह फसलो माने पनिगर जजातो अपना सभसँ बेसी होइत हएत?”
निशाकान्त बजला-
“ब्रह्मपुत्र धारक जे नाओं सुनै छिऐ ओ असामेमे ने अछि। ओही धारककातमे एकटा पहाड़ छै जइ पहाड़पर कामरूप कामाख्याक मन्दिर अछि। ओही इलाकामे ने देशक आन इलाकाक लोककेँ गदहा-हरिन, गाए-माल बना खेतमे चरबैए।”
तैबीच दुनू गोरे चाह पीब पानो खा नेने छला। भाँगक खुमारी दुनू गोरेकेँ चढ़ि गेल छेलैन। विलासदेव बजला-
“केहेन धार अछि ब्रह्मपुत्र?”
निशाकान्त बजला-
“केहेन धार अछि ब्रह्मपुत्र..! कहै-सुनै जोकर अछि। मोटा-मोटी यएह बुझू जे अपना सभ जैठाम रहै छी, एकरा गंगा-ब्रह्मपुत्रक मैदान कहल जाइ छै। ओहन मैदान जइमे गंगा सन पवित्र आ ब्रह्माक सन्तान सन लोक बसैए। तखने बुझि लियौ जे केहेन धार अछि। जेकरा हिमालय पहाड़ कहै छिऐ, तेकर उत्तर होइत पहाड़सँ उतरल अछि। पहाड़क काते-कात पूब मुहेँ तिब्बत होइत बहैत आगू जा दच्छिन मुहेँ भेल अछि। वएह धार ब्रह्मपुत्र छी। देखबै तँ भ्यौन-डेरौन बुझि पड़त। तेहेन भयंकर धार अछि..!”
विलासदेव बजला-
“छोड़ू धार-धूरक गप। जेतए छै से अपन जानत। ओम्हर पानो लोक खाइए आकि एक नम्बर चाहेटा पीबैए?”
निशाकान्त बजला-
“जेते पान ओ सभ खाइए तेते अपना ऐठामक लोक थोड़े खाएत। अपना ऐठाम तँ लोक गीत गबैकाल पान खाइए आ बाँकी समय दाँत टुटै दुआरे नहियेँ खाइए। बाधक-बाध सुपारी गाछ देखबै। ओम्हरेसँ अपना सभ दिस सुपारी अबैए। जेकरा असामी सुपारी कहै छिऐ।”
निशाकान्तक बात सुनैत-सुनैत विलासदेवक मन घुमिकऽ परिवारपर चलि एलैन। परिवारपर अबिते बजला-
“भयार, अहाँ कहलौं जे हमर समांग, सभ बक्खोओसँ बदत्तर अछि तइसँ की नीक हमर बेटा–राधारमण–अछि।”
विलासदेवक बात सुनि निशाकान्त सोचलैन जे अस्सल बात आब उठल। तँए किछु आरो अपन परिवारक निन्दा किए ने करी जइसँ विलासोदेव अपन करबे करता। जखन अपन परिवारक निन्दा केनाइ शुरू करब तखन ओइ बीचमे टेँढ़-सोझ करैत चलब जइसँ गोटी नीक जकाँ बैसत...। निशाकान्त बजला-
“से की भयार?”
एक तँ विलासदेवक मन राधारमणपर जरले छेलैन तैपर भाँगक निशा सेहो नीक जकाँ चढ़ि गेलैन। बमछैत बजला-
“भयार, बेटा-बेटी केतबो पढ़ि-लिखि लिअए मुदा जँ ओ माता-पिताक विचारमे नहि रहल तखन ओकर पढ़बक कोन मोल रहल।”
विलासदेवक विचारमे बीह फाड़ैत निशाकान्त बजला-
“भयार, नहि बुझलौं अहाँक विचार। बेटा-बेटीकेँ माए-बापक विचारमे रहब, कोनो कि नव विचार छी। सभ दिनसँ होइत आबि रहल अछि आ आगूओ सभ दिन होइत रहत। शास्त्र-पुराण कि कोनो झूठ कहने अछि।”
निशाकान्तक विचारसँ विलासदेवक मन जेना आरो कड़ुआ गेलैन तहिना बजला-
“भयार, की कहब! राधारमण ओही दिन चित्तसँ उतैर गेल जइ दिन अपना मने विवाह कऽ लेलक। अहीं कहूँ जे जैठाम बीस लाख रूपैयाक कारोबार छल, माने बीस लाख रूपैया दहेजमे दऽ रहल छल। ओ परिवारकेँ घाटा लगौलक कि नहि। भैयारीमे लोकक नेत भाइये देखि ने घटै छै।”
ओना, निशाकान्तकेँ बुझल छेलैन जे विलासदेव आ राधारमणक बीच वैचारिक मतभेद छैन, मुदा तइ सभसँ अनबुझ बनि निशाकान्त गोटी चालैत बजला-
“नीक जकाँ नहि बुझलौं भयार?”
विलासदेव बजला-
“राधारमण जखन आई.ए.एस.क परीछा पासो ने केने छल, तइसँ पहिलुके बात छी। ओकर विवाह करैक विचार भेल। बुझले अछि जे तीनू भाँइक भैयारीमे ओ सभसँ जेठ अछि। अपना जीबैत जँ तीनू बेटाक विवाह-दान नइ कऽ लेब, आ अपने कोनो राजा-दैब भऽ गेल तखन तँ अनेरे ने मुइला पछातियो एकटा कलंक कपारपर चढ़ले रहत जे फल्लाँ अपना धिया-पुताक बिआहो-दान ने करा सकल। अनके भरोसे जनमौने अछि।”
सह दैत निशाकान्त बजला-
“ई की कोनो अहींटा-क संग होइत। सभकेँ एहेन कलंक लगिते छै। समाजक मुँहकेँ कियो रोकि देत।”
निशाकान्तक बात सुनि विलासदेवकेँ बुझि पड़लैन जे भयार अपन विचारानुकूल विचार दऽ रहल छैथ। तँए आरो सभ बातकेँ किए ने बिकछा-बिकछा विचार लऽ ली...। विलासदेव बजला-
“भयार, की कहब! बेटाक किरदानीसँ समाज हमरापर हँसि रहल अछि मुदा अकलहूथ बेटा-ले धैनसन..!”
विलासदेव शब्दक गहींर पन्ना ताकि जहिना चौरीमे (माने गहींरगर खेतमे, जइमे पानि बसैत होइ आ ओइमे अनेरूआ केशौर फड़ैत होइ, भलेँ ओकर ऊपरका खोंइचा देखैमे कारी लगैत हुअए मुदा ललौन सेहो होइए) केशौर उखाड़ि खाइत तहिना निशाकान्त अपन पन्ना उखाड़ि बजैक मन बनौलैन मुदा तहीकाल सुनयना चाह नेने विलासदेव लग अबै छेली कि हिरणीक आँखि जकाँ निशाकान्तक आँखि चमैक उठलैन। सुनयनाकेँ देखि निशाकान्त बजला-
“भयार, घरवाली देलैन तँ भगवान हमरा देलैन। जहिना सुनै छिऐ ने जे जखन समुद्र मथन भेल, जइमे विष-अमृत दुनू निकलल। परोसनिहार वारीक केहेन जे किम्हरो लपक-लप अमृत परैस देलक आ जखन सठि गेलै तखन लपक-लप विष परसलक। सहए भेलैन हमरो घरवालीकेँ बनबैकाल विधाताकेँ। गणेशजी जकाँ जखन नमहर पेट आ नमहर माथ देलखिन तखन ओही आकारक ने आँखियो दितथिन, तेहने घरवाली हमरो कपारमे लिख देलैन।”
ओना, विलासदेव भाँगक निशामे उधिया लगल छला तँए निशाकान्तक बात नीक लगै छेलैन मुदा सुनयनाक मन कड़ुआ उठलैन। कडुआ ई उठलैन जे ऐठाम हम दुनू परानी माने पति-पत्नी छी मुदा निशाकान्त तँ से नहि अछि। सृष्टिक जे रचना-प्रक्रिया अछि एहेन बात बजैक की प्रयोजन। बढ़ियाँ बात जे दुनूकेँ दोस्ती छैन, अपना जगहपर छैन, केना धिया-पुतामे लोकक आम-लताम चोरा कऽ तोड़ै छला, तइसँ हमरा कोन मतलब। मतलबक बात तँ ई अछि जे बुढ़हाकेँ बेटापर तामस-पीड़ा चढ़ल छैन, तेकरा समरस करैत दुनूक बीच समभाव पैदा करैक ने छैन। सुनयना बिना किछु बजने, दुनू कप चाह रखि चोटे आँगन दिस घुमि गेली।
सुनयना आँगन पहुँचलो ने छेली कि सुखदेव आएल। सुखदेवकेँ देखिते विलासदेव बजला-
“भयार, गाहीक-गाही बेटा भगवान भलेँ नहि दैथ मुदा जँ एकोटा बेटा श्रवण कुमार सन भऽ जाए तँ बुझी जे दस हजार बेटाबला राजा सगरसँ नीक। बेटा-बेटीक जन्म माए-बाप दइए मुदा माता-पिताक मृत्युक भार तँ बेटे-बेटीक सिर पर रहैए। एक सीमानपर हमरा खुट्टा गाड़ि देलैन। हम तँ ओतबे दिनक ने जवाबदेह भेलिऐ, जाबे आँखि तकै छी। से जँ बाँहि पुरैबला बेटा भऽ जाए तँ वएह ने नर्को-स्वर्गक दुआरि लग तक पहुँचा सकैए। ई नहि ने जे मुहमे ऊकसँ आगि लगा उतरी तोड़ि फेक दिअए तइसँ ओ श्रद्धाक पात्र भेल।”
अपन सुतरैत शतरंजक गोटी देखि निशाकान्त बजला- “भयार, कोनो हम फुसि बजै छी सेहो बात नहि अछि। दुनियाँ जनैए जे जहिना अहाँक पिताकेँ पचास बीघा जमीन छेलैन तहिना हमरो पिताकेँ रहैन। दुनू गोरेकेँ गामक मालिक लोक बुझै छेलैन, बेर-कुबेर, दू-सेर आ दू-टाकासँ ठाढ़ो होइ छेलखिन। मुदा देखिते छी जे तेहेन करांगकुल भाए सभ भेल जे अखन तीन बीघापर आबि अँटकल छी। मुदा पिताक अमलदारी-समैयक खानदानी मलिकाना दोस्ती तँ दुनू गोरेक बीच अछिए।”
निशाकान्तक विचारकेँ विलासदेव अपन विचारमे पुरबैत बजला-
“भयार, राधारमण गामसँ अपन परिवार लऽ कऽ दुनियाँ निकलल तँ निकलल। गामक सम्पैत तँ हमर भेल। जाबे हम जीबै छी ताबे तक जहिना माए-बापक जिनगीमे सुख भोगलौं तेहने सुख ने बेटो-बेटी तहिना पुरबए, सएह ने चाहिये। भलेँ नै कमाइ-खटाइए तँ की हेतइ। माए-बापक सेवा तँ करैए। अखन जे जमीन हम बेचब, तइमे एक हिस्सा माने तिहाइ जमीन तँ राधारमणेक जेतइ। तइ ले ऐ दुनू भाँइ–सुखदेव आ वामदेव–क की बिगड़त।” मुँह चटपटबैत विलासदेव आगू बजला-
“भयार, आइ जे सुखदेव भाँग पीयौलक एहेन जँ सबदिन पियाबए तखन ने।”
तैबीच सुखदेव बाजल-
“चाचाजी, मलिकाना दोस्ती की कहलिऐ?”
अपन चालक चालबाजी पकैड़ चलाक जकाँ चलाकीक डारिपर सँ निशाकान्त सुखदेव दिस तकैत बजला-
“बौआ, जहिना तूँ भयारक बेटा छुहुन तहिना हमरो भयार-भातिजे ने भेलह। बेटा-भातीजमे कोनो अन्तर होइए। जहिना लोक अपन बेटाकेँ बुद्धिपरक विचार दैत बुधियार बनबए चाहैए तहिना ने हमहूँ चाहब। तहूमे तँ जे आइ भाँग पियौलह से तेहेन पियौलह जे मन शिवजी-महादेवक दरबारक दरबारीक रूप पकड़ा देने अछि, तैठाम हमरा अपनो तँ अपनत्वक भार माथपर आबिये गेल किने?”
निशाकान्तक अलंकारी भाषाक अर्थ सुखदेव नहि बुझि पौलक मुदा शब्दक तुक-तकिया सुनि ताक-तकैत तकनहार तँ भइये गेल। बाजल-
“चाचाजी, जहिना अंगदकेँ–माने रामायनिक बालिक बेटा–केँ, सुग्रीव सन चाचा भेटलैन जइसँ रामक दर्शनक संग सुग्रीवक साम्राज्य स्वीकारि लेलैन तइसँ अहाँ भिन्न हमरा बुझै छी। तहूमे ज्ञान-रूप धारमे नहानक बेर। ओना, लोकक बीच ईहो चलैन अछि जे कुघाट-सँ-कुघाटक केहनो कुघटिया किए ने हुअए मुदा मुँहक ज्ञान तँ दैवी ज्ञान छीहे किने तँए ओकरा ग्रहण करैमे राहु-केतुक कोनो दोष नहि।”
ओना, सुखदेवक विचार सुनि निशाकान्त खुशियाएल मुस्की मारि-मारि तरे-तर मुसुक मुस्की मारै छला। जेकरा सुकदेव अपन विचारक बड़हपन बुझि रहल छल, मुदा निशाकान्त मने-मन भिन्नाक छिन्ना सेहो देखि रहल छला। बजला-
“बाउ सुकदेव, मलिकाना दोस्ती भेल, जेना हमरा-तोरा परिवारक बीच अछि।”
निशाकान्त अपन ओ बंशी पाथए चाहि रहल छला जइ बंशीमे दुनू दिशा घाव बनल रहैत। चाहे उनटा लागे आकि सुनटा लागै, ताकि पुनटा करब असान हएत। पुनटा भेल पुण्यपूर्ण।
तैबीच सुखदेव बाजल-
“चाचाजी, तइसँ की भिन्न हमरा बुझि रहल छी। हम तँ जहिना पिताकेँ बुझै छिऐन तहिना अहूँकेँ ने बुझै छी।”
सुखदेवक विचार सुनि निशाकान्त मने-मन चपचपेला। चपचपेला ई जे जहिना भारी वजनबला रंगा (रांग) केँ पानि जकाँ आगिपर पघिला कौड़ीक (समुद्री कौड़ी, जइसँ पचीसियो खेल आ तांत्रिक सभ सेहो चित्ती-कौड़ी भाँजि साँपकेँ पकड़ैए आ बाल-बोध खेलबो करैए।) मुहमे देलापर ठंढ़ाइते भरिया जाइए तहिना भरियाइत निशाकान्त बाजए लगला-
“बाउ..!’
तहीकाल वामदेव सेहो पहुँचल। वामदेवकेँ देखिते निशाकान्त वाउए ‘वाउए’पर अपन विचारकेँ मनमे मोड़ि अँटका लेलैन। मन मानि गेल छेलैन जे एक तीरसँ दू शिकार किए ने पकड़ब। भाय महाभारतक लड़ाइमे धनुषसँ पहिने एकतीर निकलै छल आ जेना-जेना आगू बढ़ैत जाइत छल तेना-तेना संख्यामे वृद्धि होइत-होइत दस-दस हजार भऽ जाइ छल, तैठाम अपने भलेँ अर्जुन कि भीष्मपितामह नइ छी, मुदा एकटा मनुख तँ छीहे। तखन दुइयोटा शिकार नइ पकैड़ सकब। भलेँ करूणा रोग महामारीए किए ने छी मुदा व्याकरणक तँ गणेशजी जकाँ करूणाक जानकार अछिए, तँए एकलैंगिक बनि बिमारीकेँ अधा-अधी तँ अपने कऽ नेने अछि तैठाम जँ अधेक पाछू सौंसे दुनियाँ-बेहाल छी तेकर हाल की अछि, सेहो ने सभ सुनत। मुस्की दैत निशाकान्त बजला-
“बौआ, कमलपुर गाममे अपने दुनू गोरेक परिवार सभसँ धनिको आ सभसँ इज्जतदारो पिताक अमलदारीमे रहल। ओही बराबरीक दोस्ती दुनू परिवारमे अछि। जहिना तोहर बाबा आ हमर बाबू एकठाम बैस खेबो-पीबो करैथ आ सभ तरहक काज-उदममे हमरो परिवारक सभ अबै छेला आ हमरो ऐठाम जाइ छेला, पनरह-पनरह दिन रहै छेला। मुदा आइ तँ ओ जुग नहि रहल, नवका-नवका लोको भेल आ लोकक संग सम्पैतियो भेल आ तैसंग नव-नव विचारो तँ भेबे कएल अछि। जहिना तोहर पिताकेँ माने भयारकेँ अपने परिवारक फिरिसानीसँ पलखैत नहि होइ छैन तहिना हमरो भइये गेल अछि। तँए कनी आबा-जाही कमि गेल अछि।”
निशाकान्तक विचारमे विलासदेव अप्पन बड़हपन देखि रहल छला, तँए सुनन्तू बेटा लग बजन्तू बनि बजला-
“भयार, की कहूँ। बिनु कमेने-खटेने जेहेन पितृभक्त बेटा होइए तइमे छदामो भरि कमी दुनू बेटामे–सुखदेव आ वामदेव–नहि अछि। ओना, मनमे कोनो एहेन भरमाबैबला भ्रमरक बास भऽ गेल होइ, से तँ हनुमान जकाँ कियो छाती फारि नहियेँ देखए देत, से तँ सम्भवो नहियेँ अछि। भाय, छाती तँ छाती छी, कखनो अपन छत्ती बनि छत्रवास बना बास करैए तँ कखनो छातीमे मुक्का मारि बेटो-मृत्युक संतोख सेहो करते अछि। मुदा किछु अछि तैयो तँ दुनू बेटा तँ हमरे ने कहौत।”
ओना, विलासदेव अपन जिनगीक नापसँ बाजल छला, किए तँ एकटा कचहरिया संगीक विचार मनमे जेना बैस गेल छैन तहिना बेर-बेर बजै छैथ जे कोट-कचहरीक खेल जहिना जिनगी भरि एक्के शब्दमे अटकौने रहैए तहिना ने परिवारोमे होइए। दस-बीस बर्खक जिनगी तँ लोक टिटहीक टाँहियोसँ निमाहि सकैए। जेहेन जे करैए से तेहेन पबैए। से कि कोनो हमरेटा बुझल अछि आकि सभकेँ बुझल छै। आब कियो अक्लबहर बनए आकि अकलथूक। से तँ ओकर ने काज भेल...।
विलासदेवक बात सुनि निशाकान्तक मन तरसा जकाँ धीरे-धीरे तरसए लगलैन, मुदा दुनू भाँइक अगवानी देखि निशाकान्त अपन तरसकेँ तरसेमे समेटि मनकेँ मारि चुपचाप, उजरा बौगुला जकाँ लटकलहाक पाछू दौड़ैत रहैए तहिना निशाकान्त सेहो अपने जिनगीक समरूप अपन भयारोकेँ बनबए चाहि रहल छला। किए तँ जहिना अपने निशाकान्त तीनू भाँइक भैयारीमे गामक पनचैतीसँ लऽ कऽ कोट-कचहरीक मर्दन करैत पचास बीघाक फाँट सत्तरह बीघा होइए तैठाम बनरबाँटमे पड़ि तीन-तीन बीघापर तीनू भाँइ ठाढ़ छैथ। भाय, धनेक उमकी ने धनीकक धनकेँ ढाहैए। तँए कि मानो-मरजादा तइ लागल ढहि जाइए? से तँ नइ ढहैए, ओ तँ जुआनी मंत्रक सूत्र छी जे जेहेन पकड़ैए से तेहेन पबैए।
निशाकान्त बजला-
“भयार, बापक हम बड़ दुलारू बेटा छेलिऐन। ढेरबा तक माने जखन दुरागमन भऽ गेल तहिया तक, जहिना माइयो तहिना पितोजी सभदिन बकलेले-ढहलेल कहैत रहला आ तैसंग किछु-किछु सिखैबतो छेला। मुदा आइ जँ अपन पान-सात बर्खक कोचिंगक बेटा-पोताकेँ किछु अढ़ेबो करबै आकि सिखेबो करबै से अहाँक बोलो-बाइन बुझत तखन ने। ओइ अबोधक कोन दोख अछि। दोख अछि ओकर माए-बापक ने जे बच्चाक जिनगीक हिसाबसँ अपन जिनगीक रस्ता नहि बना सकला।”
जहिना अलबौक विलासदेव तहिना दुनू बेटा, तैठाम निशाकान्त सन उपदेशक। जे अपने परिवारकेँ ढाहि अपन पैत्रिक सम्पैत–खेत-पथार–केँ पचहत्तैर प्रतिशत दान जकाँ गमा चुकल छैथ, जीवनमे ऐसँ बेसी भइये की सकैए। पचीसो प्रतिशत तँ अपनो जीवन-ले लोककेँ चाहबे करी। निशाकान्तक मनमे ईहो उठैत रहैन जे निसभेरो राति, माने अन्हारक घनघोरो समयमे तँ शुक्ल पक्षक इजोरियाक चान जकाँ ओहनो समयमे ने चान्दनी राति बना चानिपर चमैक अपन परिचय दैते अछि। तेतबे किए, घनघोर अन्हारमे सेहो ज्ञानचक्षुसँ प्रकाशपूँज प्रकाशमान होइते अछि।
अपन टुटैत जिनगी आ जिनगीक विचारधारा ग्राहकक ग्रास बनियेँ गेल छैन, मुदा जहिना साँपक मुँहमे पड़ल बेंग, जेकर आधासँ बेसी भाग किए ने मृत्युक अन्तक सीमा पार कऽ देने होइ, मुदा जँ मुँह उघार रहत माने साँपक मुहसँ बाहर रहत, तहूकाल जँ कोनो फनिगाकेँ उड़ैत देखत तँ लपकबे करत। एहने अवस्थामे पड़ल विलासदेवक जिनगी बनि गेल छैन। जिनगी सोल्हन्नी रोगग्रस्त भऽ गेल छैन। शारीरिक रोग जे होनि मुदा मानसिक रोगसँ मरनासन्न भऽ गेल छैथ। मुदा तैयो...। मौखिक परीक्षा जकाँ निशाकान्त बजला- “बौआ, भोरका पान जकाँ मुँहक पान रसविहीन भऽ सिठिया गेल अछि तँए पहिने एक गिलास पानि पीयाबह, पछाइत पानो खुअबिहह। नइ तँ एक भाँइ गिलास-लोटामे पानि आनह, जइसँ भयारो पीब लेता आ एक भाँइ पान लगाबह। पानक सभ समान लगमे छहे।”
जहिना दुनियाँमे कियो पहिने अपन ज्ञान दान बेटाकेँ करए चाहैए तहिना ने अनका अढ़बैसँ माने काज अढ़बैसँ पहिने बेटाकेँ अपन बुझि अढ़ैबतो अछि। ओना, दुनू बेटाक–सुखदेवो आ वामदेवो–क मन दुनू भयारक बात-विचार सुनि दहला-भँसिया रहल छेलैहे। तैबीच सुखदेव ओम्हर पानि आनए आँगन गेल आ इम्हर विलासदेव फुसफुसा कऽ बजला-
“भयार, ऐ अबन्ड बेटाकेँ माने वामदेवकेँ, सदिकाल सिखबै छिऐ जे बौआ माए-बापक उद्धार जेठके बेटासँ होइ छै आकि छोटके बेटासँ। राधारमणक जे हाल अछि से देखबे करै छहक, तखन तँ तोंही ने बँचलह। बीचक जँ राजा सगर जकाँ दसो हजार बेटा रहत तेकर कोनो मानि अछि। एते तक कि जिनगी भरि बाप-माइक देहपर थूको फेकत तेकरो मानि नहियेँ अछि।”
पिताक बात सुनि वामदेवक नजैर उठल। जे निशाकान्त परेखि लेलैन। अपन नजैरमे निशाकान्त नजरपन भरैत, माने नजैरिक पानि भरैत बजला-
“भयार, सासुरमे जे मोहरमाला देने अछि, तेकर जानकारी समाजो आ परिवारोकेँ अखने दऽ दियौ जे वामदेवे मुँहमे आगियो देत आ श्राद्धो-कर्मक भार ओकरे दइ छिऐ। तँए अपनबला मोहरमाला वामदेवक भेल।”
पानि पीब पान खा दुनू भयार–विलासदेव आ निशाकान्त–पुन: परिवारक गप-सप्प शुरू केलैन। अखुनका एस्टाएल नहि, विग्रहक टाइल मारैत निशाकान्त बजला-
“भयार, गाममे अहाँ-जोकर कएटा बाप भेल अछि जे अपन बेटाकेँ आई.ए.एस. बनौलक!”
अपना जनैत निशाकान्त टाइल मारि बाजल छला मुदा तीनू बापूत–विलासदेवक संग आ दुनू भाँइ सुखदवो आ वामदेव–क मनमे राधारमणक प्रति जे धारण धऽ नेने छल, ओ आरो धराह बनि गेल। जइसँ विपरीत भावक जन्म तीनूक मनमे जगि गेल। अखन तक निशाकान्त अपन परिवारक तीनू समांगक जिनगीक कथा तेना रत्ती-बत्ती सुना चुकल छला जइसँ रामायणिक राम-लक्ष्मणक भैयारीक सम्बन्ध नहि बनि सकल, बनबो केना करैत एक राम पिताक दंश झेलनिहार, दोसर दहेजक दंश झेलनिहार भेला। तैठाम सीताराम केना राधारमण बनि सकैए। राधारमण-ले तँ किछु आराधए पड़ै छै किने।
विचारक द्वन्द्व तीनू बापूतक मनकेँ तेना ने घुड़िया-पुड़िया रहल छल जे तीनूक बकारे हरण भऽ गेल छल। पगलाएल राम जहिना चिड़ै-चुनमुनीक संग गाछो-बिरीछकेँ सीताक परिचय पुछए लागल रहैथ। जे ‘हे खग, हे मृग मधुकर श्रेणी, तुम देखे सीता मृगनयनी?’ तहिना शान्त वातावरण देखि निशाकान्त दोसर टाइल मारैत बजला-
“भयार, आब अहाँक भाग्य जगि गेल। ‘बढ़हि पुत्र पिताक धर्मे’ अहाँक सोल्होअना धरम राधारमणमे चलि गेल जइसँ ओकर भाग उग्र भऽ जगि गेल आ दुनू भाँइ–सुखदेव-वामदेव–क भाग्य सेहो ओकरे मे माने राधारमणमेमे चलि गेल, फलाफल दुनू भाँइ बिनु पानि चढ़ल लोहा जकाँ कहियौ आकि कुम्हारक आवाक अध-पक्कू वर्तन जकाँ कहियौ, कँचकुहक कँचकुहे रहि गेल।”
‘कँचकुह’ सुनि वामदेव बाँहिक शर्ट समटैत बाजल-
“भयार काका, अहाँ दुनू भयार जँ पीठपर ठाढ़ रहब माने पीठपोहू बनल रहब तँ एक भैयारीकेँ के कहए जे सत्तरहटा भैयारीकेँ सीखा सकै छी।”
ओना, निशाकान्त मने-मन बुझैत जे टीनक गरमी केतेकाल। कम-सँ-कम पहिने भानसो करैजोग बरतन बनह तखन अपनाकेँ खान-द्रव कहाएब। छी कागज जकाँ आ अपनाकेँ गमै छी जे सोन-चानी जकाँ हमहूँ स्वर्ण द्रव्ये छी। मुदा निशाकान्तक अकास चढ़ल मन एकाएक धरतीपर अतरलैन। उतैरते मनमे एलैन जे केकरो कहने टीन द्रव्य नहि भऽ सकैए सेहो तँ नहियेँ अछि। समूह रूपमे टीनोमे भानस होइते अछि। कनी ओकरा आगिपर चढ़ा, जखन ओ आगिये जकाँ लाल भऽ जाए तखन हाथक आँगुरसँ छुबि कऽ देखियौ जे आन द्रव्य, भलेँ ओ सोने किए ने होइ, ओइसँ कम शक्ति टीनोमे छै। उपदेशक जकाँ निशाकान्त सुखदेवो आ वामदेवोक उपदेशी बनि भयारकेँ कहलैन-
“भयार, दुनियाँ जे बुझह, मुदा अपनो तँ इमान-धरम अछिए, चाहे अपन बेटा-बेटी हुअए आकि दुनियाँक, मुदा अपन जे मानवीय कर्तव्य अछि, तेकरो जँ उठा कातमे फेक देब, सेहो तँ नीक नहियेँ भेल।”
अपन भारक भारपन विलासदेवकेँ सेहो बुझि पड़लैन। जइसँ मनमे एकटा स्वर्ण-रूपा विचार अनायास जगि गेलैन। बजला-
“भयार, गणेशजी सन गुरू आ अष्टावक्र सन ज्ञानी कियो किए ने होथि मुदा वेद विहीत विचार जे ‘पिता पहिल गुरू छैथ’ तेकरा कियो झुठिया देत?”
नहलापर दहला फेकैत निशाकान्त बजला- “भयार, ताशक गेम-गेम खेलमे भलेँ नहलापर दहला फेक दहला दियौ मुदा ‘ट्वेन्टी एट’मे नहले दहलाकेँ नमबैए। खाएर समय पेब अहिना टिटही अकासमे टिटियाइए तइसँ लोककेँ कोन मतलब। मतलब तँ एतबे ने अछि जे अपन परिवारक नमहर इतिहास अछि, जहियासँ मनुख घर बना परिवारक संग रहए लगला तहियाक परिवार छी।”
निशाकान्तक विचारमे विलासदेवकेँ इतिहासक कोन पन्ना भेट गेलैन से तँ विलासदेवे बुझता, मुदा मनक चपचपीमे चपचपाइत मुस्की दैत बजला-
“भयार, सभ दिन दुनू भाँइकेँ कहै छिऐ जे ‘बौआ, हजारो धर्मस्थान आकि हजारो सरोवरक घाट पर किए ने नहाएल होइ, मुदा बेटा-बेटी लेल माए-बापक सेवा सभसँ पैघ धर्मक काज छी। पिताजी जखन जीबै छेला, भरि दिनमे तीनबेर मद्यपान सेहो करै छेला। समयसँ पहिने मुस्ताइज भऽ हुनका मद्यपान करबैत रहिऐन। ओ त्रिकालदर्शी छेला। जखन मन उदार भऽ जाइ छेलैन तखन कहै छेला- ‘बौआ विलास, जहिना तूँ सेवा करै छह तहिना तोरो पचास बीघा जमीन अरैज देने छिअ। मरैबेर मड़ुओ भरि मनमे सोग-पीड़ा ने अपने रहत आ ने तोहर रहत। जँ कियो कहनिहार कहत जे अहाँक परिवार देशक भार बनल अछि। से ओकरे कहने भऽ जेतइ। जहिना अपन देश छी तहिना ने अपन दिनो-दुनियाँ अछि, जइ पाछू लागि अपन जीवन धारण केने छी।”
दुनू भाइ–सुखदेवो आ वामदेवो–क मन तेहेन मिथि-मालिनिक मथानीमे मथा गेल जे जहिना दुनियाँक हजारो बाटमे हजारो सुख-दुख नचैत अपन छर्त्त पकैड़ लइए तहिना छर्त्त पकड़ैत सुखदेव बाजल-
“भयार चाचा, अहाँक सोझामे कहै छी जे जहिना सभ अपन माए-बापक माने माता-पिताक सेवा दुनियाँमे कऽ रहल अछि तइसँ की हम कम छी। जहिना दुनियाँमे देखै छी तहिना करै छी, तइ ले जँ पिताजी मने-मन तकलीफ सहता से किए सहता। हुनको ने बुझए पड़तैन जे जखन आब मोबाइलेसँ पढ़ौनी सेहो शुरू भऽ गेल अछि, तखन स्कूल जेते खुजल तेकरो हिसाब नइ होइ सेहो केहेन हएत।”
ओना, धारक धारामे जहिना खत्ता-खुत्तीक सड़ल-जमल जमौठ पानि किए ने मिलैत होइ मुदा धाराक प्रवाहमे ओकरोमे एहेन गतिक संचार तँ भइये जाइ छै जइसँ ओकरोमे शुद्धता आबिये जाइ छै। अही अनुकूल सुखदेव बाजल। किए तँ जीवनक एक परिस्थिति ओहन अछि जे अभावक जिनगीमे लोक नहि पढ़ि पबैए। मुदा जे परिवार आर्थिक दृष्टिएँ सम्पन्न अछि, जइ परिवारमे आई.ए.एस. भऽ सकैए, तैठाम सहोदरे दोसर-तेसर भाए श्रमचोर केना बनि गेल अछि। जे सुखदेव अपनो ने बुझैए। जहिना ग्रहन लगलापर वा अकासमे सुर्ज-चान-तारा वा पानिक वादलक घटमान देख, देखनिहार ऊपरे-घाड़े ने देखैत रहि जाइए। ओ थोड़े बुझैए जे सुर्ज केना कतियाएल देखि पड़ैए आ कि आने ग्रह-नक्षत्र किए कतियाएल। ओ तँ वएह देखि सकैए जेकरा हृदयमे ज्योतिषक ज्योति प्रज्वलित होइन। कहैकाल तँ सभकेँ सभ कहै छिऐ ‘श्रवण कुमार जे माए-बापक सेवा केलैन ओ इतिहास-पुराणक अद्वितीय घटना छी।’ मुदा श्रवण कुमारक जीवनधारा आ माता-पिताक जीवनधारा की छेलैन, केहेन छेलैन आ केते प्रवाहित छेलैन सेहो ने सबहक समक्षक प्रश्न भेल। खाएर जे भेल ओ त्रेता जुगक घटनामे चलि गेला। आब कि गुरुद्वारमे बौगुला जकाँ धियान करैक बेवहार रहल, आब तँ मोबाइलसँ ज्ञानक संचरण हुअ लगल अछि।
निशाकान्त मने-मन विलासदेवोक आ दुनू भाँइ–सुखदेवो आ वामदेवो–क नब्ज नीक जकाँ पकैड़ नेने छला। झूठ केना सच बनैए आ सच केना झूठ बनैए, अही सीमापर अपनाकेँ ठाढ़ करैत निशाकान्त बजला-
“भयार, ई देहे व्याधिक घर छी।”
बजैक क्रममे निशाकान्त वैचारिक विषय तँ रखि देलैन, मुदा अपन मिसियो भरि टिप्पणी नहि देलैन जे अही व्याधिसँ ने मनुख व्याधाक रूप पकैड़ व्याधिसँ निवृति भऽ सकैए। आकि जिनगी बनौने छी चाहक दोकानदारक आ अकासमे उड़ैत इंजन केना लसैक गेल? दिन-राति जँ से चिन्ता करत तखन ओ ई केना बुझत जे समाजमे माने गाममे, पचास रूपैआ आमदनीक परिवार अपन भेल तँए हमरा दुनू दिस देखए पड़त। एक दिस आमदनीक बढ़ोतरी केना हएत तँ दोसर दिस अपन परिवारकेँ अपना आमदनीपर असथिर करैक सेहो अछि। जँ से नहि हएत तँ परिवार पाओल जाएत किने।
गप-सप्पकेँ अन्तिम सीमा दिस बढ़बैत निशाकान्त बजला-
“भयार, हम जहिना अपना बेटा-बेटीकेँ बुझै छी तहिना अहूँक धिया-पुताकेँ बुझै छी। भलेँ दुनू भाँइ–सुखदेवो आ वामदेवो–मानए वा नहि मानए, मुदा अपनो तँ किछु कर्तव्यकेँ निमाहैत बजलौं। आब अबेर भऽ गेल। पता लगल जे राधारमण जा रहल अछि, कहुना भेल तँ बेटे-भातिज ने भेल, घरसँ जखन निकैल दुनियाँ दिस बढ़त तँ कम-सँ-कम एतबो असीरवाद देब जरूरी अछिए किने जे कहितिऐ, बौआ गाम-घरक चिन्ता मिसियो भरि नहि करिहह। हम सभ अपन बुझि लेब।”
राधारमणक प्रति निशाकान्तक प्रतिक्रियाक आकलन तीनू बापूत विलासदेव एक-दोसर दिस देखि-देखि करए लगला। मध्यम वर्गक परिवारक मनुखकेँ सामाजिक-आर्थिक दुनू दृष्टिएँ तेना वैचारिक ढाँचामे ढालल गेल जे ओ श्रमहीनक संग भोगी-विलासी सेहो बनि गेल। जइसँ परिवारक ढाँचामे व्यवधान उपस्थित भेल आ धीरे-धीरे मृत्युक कगारपर पहुँच गेल।
एक तँ कचहरिया लोक निशाकान्त, तहूमे गामक सभ जनैत जे निशाकान्त सन इरखादार दोसर गाममे कियो ने छैथ, अपन चौदह बीघा खेत बेचि कोटे-कचहरीक ज्ञान हाँसिल केने छैथ, तैसंग एहेन सेहो छैथ जे सहोदरे भाइक संग सभ किछु केलैन।
सामंजस करैत निशाकान्त बजला- “भयार, एकटा राजा एकटा जोगीकेँ अपन दुनू बेटाक सेवा करैक भार देलैन। जोगीकेँ विचारैमे धोखा भेलैन, एकटाकेँ अपने जकाँ जोगी बनौलैन, जे अपना घरमे रहत। दोसरकेँ राजसी जीवनसँ मण्डित केलैन। जखन दुनू जुआन भेल तखन जोगी दुनूकेँ राजाक सामने उपस्थित केलैन। हलैस कऽ राजा-जोगीकेँ अपन हिस्सामे लऽ लेलैन। अपसोच करैत जोगी घर घुमला।”

(जारी---)

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