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गजेन्द्र ठाकुर

राम भरोस कापड़ि 'भ्रमर' पर एकटा समग्र दृष्टि

राम भरोस कापड़ि 'भ्रमर' सर्वहारा वर्गकेँ गरिमा देलन्हि, जखन महेन्द्र मलंगिया आ जातिवादी रंगमंच शोलकन आ राड़ युक्त शब्दावली अपन स्लैपस्टिक ह्यूमर बला नाटक मे दऽ रहल छल, तखन भ्रमर जी ई केलन्हि, से आर महत्वपूर्ण छल।

जँ नाटक पढ़बामे उद्वेलित नै करत तँ निर्देशक ओकर मंचनक निर्णय कोना लेत? आ जे पढ़बामे नीक लागत से भऽ जायत नाटकक पठनीय तत्त्वक आग्रही? आ जे जातिवादी अछि, जे 'स्लैपस्टिक ह्यूमर' लिखै छथि से भेला नाटकक मंचीय तत्वक आग्रही? २१म शताब्दीमे मलंगियाजी 'ओकर आंगनक बारहमासा'मे निम्न वर्गकेँ राड़ कहै छथि, कएक दशक बाद ई धरि सुधार आएल छन्हि जे ओ आब ओइ वर्गकेँ निम्न वर्ग कहि रहल छथि, ई सुधार स्वागत योग्य मुदा ऐ दीर्घ अवधि लेल बड्ड कम अछि। मलंगियाजी अपन जाति-आधारित वाक्य संरचना, आ भ्रष्ट-हिन्दी मिश्रित वाक्य रचना कोना घोसिया सकितथि जँ भगता आ निम्न वर्गक छद्म संकल्पना नै अनितथि, ई तथ्य ओ बड्ड चतुराइसँ नुकेबाक प्रयास करै छथि, आ तेँ ओ मेडियोक्रिटीसँ आगाँ नै बढ़ि पबै छथि। आ तेँ हुनकामे ऐ नाट्य-कथाकेँ उद्देश्यपूर्ण बनेबाक आग्रह तँ छन्हि मुदा सामर्थ्य नै आबि पबै छन्हि। विष्णु शर्माक पंचतंत्रमे नीक कथा सभ अछि मुदा ओ अकारण शूद्र आ स्त्रीक पाछाँ पड़ि जाइ छथि, से नारायण पण्डितकेँ ओकर पुनर्लेखन कऽ हितोपदेश लिखय पड़लन्हि। रंगमंच निर्देशककेँ सेहो ऐ तरहक भाषाक पुनर्लेखन कऽ मंचन योग्य शब्दावली बनेबाक चाही।

भ्रमरक गरिमामय भाषा लोकक गरिमाक मान रखैत अछि।

मुदा पहिने भ्रमरक लघुकथा सभपर एकटा दृष्टि:

तोरा संगे जयबौ रे कुजबा (१९८७)

ऐ संग्रहमे १२ टा लघुकथा अछि।

पहिल लघुकथा भगजोगनीक जबर्दस्त प्रारम्भ भेल। ग्लैमर गर्ल रेखा घर गृहस्थीक लेल चिन्तित, ई देखि कऽ प्रोटैगोनिस्ट अभि अचम्भित छथि। समाजसँ परिवारसँ जे ओकरा अठारहे उन्नैस बर्खमे पठा देलकै काठमाण्डो, कमाइ लेल। ओकरासँ खिन्न छलि रेखा। पति बनारसमे ओकरे कमाइपर पड़ल रहै छल, आ ओकर फैशनक खर्च पूरा करै छलै ओकर संगी शेखर, व्यापारी। मुदा कथाक अन्त कमजोर भऽ गेल अछि।

अन्हारमे भोतिआयल एकटा सिपाही उत्कृष्ट कथा अछि। गणेश आ गणेश सन लोकक स्केच। 'हमरे हरिपुर बला बट्टेदारसँ माङल दाउरा, सुरवाल, टोपी आ बाबूक पुरना जूता पयरमे आ आँखिमे टूटल बाँहिबला चश्मा, जकरा ओ डोरीसँ बन्हने रहैक।'

'भोतिआयल बाटक बटोही', 'नोरक बुन्न' 'असक्क' व्यक्तिक मनक विचार आ निराशाकेँ नीकसँ वर्णन करैत अछि। मुदा सर्वहाराक दर्द 'माटिक दरद'मे जइ प्रकारेँ आयल अछि, से अद्भुत अछि।

'मनःस्थितिक दंश' कथाक गढ़नि अद्भुत् अछि। बहुरियाक पति नाइट ड्यूटी, सिकरेटीपर जाइ छै। कमजोर छै। ससुर ओकरा घरमे पइसै छै, मुदा से ओकरा बादमे पता चलै छै, पहिल राति तँ ओ आदंकमे रहैए, ओकरा संग सम्भोगो भेलै आकि ओ सपनाइ छलि सेहो नै पता। कथा आगाँ बढ़ै छै। आर शिल्पगत विशेषता अबै छै। मुदा फेर अन्त होइत-होइत कथा कमजोर भऽ जाइए।

टीस दसम कक्षाक छात्राक कथा अछि, ओ किछु बनऽ चाहै छथि, मुदा..

जेना टीस गीताक कथा अछि तहिना मौसी मौसीक कथा अछि जे आइ जा रहल छथि, मुदा हुनका मोनसँ कियो निकालि नै पाबि रहल अछि।

आँचरमे बर्खा बुन्नीक बीच प्रोटैगोनिस्ट सोचि रहल छथि। भयंकर बर्खा, अड़ियानधान कऽ देतै। सरस्वती, सुनीता, गीता। सरस्वतीक सासुर नीक नै भेलै, गीता लेल लड़का प्रोटैगोनिस्ट ताकथु। स्मृति.. बर्खा बुन्नीक बीच।

पांकमे मॉडर्न रेखाक कथा अछि। मुदा कथा उद्देश्यहीन भटकैत रहैत अछि। तोरा संगे जयबौ रे कुजबा टाइटल कथा अछि मुदा पांक सन ईहो स्त्री पुरुष विमर्शकेँ नै फरिछा पाबैए। बैकफ्लैस आस जगबैत रहैए मुदा पाठक पियासले रहि जाइ छथि आ से प्यास तखन आर तीव्र भऽ जाइए जखन एतेक सशक्त पाँति कथाकार अन्तिममे आनै छथि।

तोरा संगे जयबौ रे कुजबा

बड़ सुख होयतै-

हथिया चढ़ि घुमबै जहान रे..

भ्रमरक नाटक

फील्डवर्कक आधारपर जँ लोककथाक संकलन, मोहाबराक संकलन नै करब तँ अहिना हएत जेना मलंगिया जीक नाटकमे होइए। अहाँ एक वर्गक प्रचलित मोहाबरा 'दस ब्राह्मण दस पेट, दस राड़ एक पेट' मोहाबराक संकलन कऽ लेब मुदा दोसर वर्ग द्वारा प्रयुक्त 'दस ब्राह्मण एक पेट..' केर संकलन नै कऽ सकब। महेन्द्र नारायण राम लिखै छथि जे लोककथामे जाति-पाइत नै होइ छै, मुदा मलंगियाजी से कोना मानताह? भगता सेहो हुनकर कथामे एबे करै छन्हि। आ असल कारण जइ कारणसँ ई मलंगिया जीक नाटकक अभिन्न अंग बनि जाइत अछि से अछि हुनकर आनुवंशिक जातीय श्रेष्ठता आधारित सोच। हुनकर नाटकमे मोटा-मोटी अढ़ाइ-अढ़ाइ पन्नाक घीच तीरि कऽ कइएकटा दृश्य होइत अछि, जइमे अन्तिम दू-तीन दृश्य धरि ओ छोटका जाइतक (मलंगियाजीक अपन इजाद कएल भाषा द्वारा) कथित भाषापर सवर्ण दर्शकक हँसबाक, आ भगताक भ्रष्ट-हिन्दीक माध्यमसँ छद्म हास्य उत्पन्न करबाक अपन पुरान पद्धतिक अनुसरण करै छथि। नाट्य-कथाकेँ उद्देश्यपूर्ण बनेबाक आग्रह तँ अन्तिम दू-तीन दृश्यमे ओ करैत थि मुदा सामर्थ्य नै आबि पबै छन्हि। "पचपनिया मैथिली" मे सुभाष चन्द्र यादव लिखैत छथि- "डॉ. रमानन्द झा 'रमण'अपन नोटबुक मे टिपने छलाह-'ब्राह्मण कहैत छथि सोइत छी, सोल्हकन कहैत अछि बाभन छी। हम की कही जे की छी?' एहि टीप मे सोल्हकन लेल जे निरादर व्यक्त भेल अछि, से आर किछु नहि; जातीय विद्वेष आ घृणाक भाषिक अभिव्यक्ति थिक।" चन्द्रेश "रामभरोस कापड़ि 'भ्रमर' : विचार, संवेदना आ चेतना [विदेह अंक ३७०]"मे लिखै छथि- "किएक तँ नेपालक मैथिली नाटककेँ नाटक बुझले नहि जाइक। दोसर, जे संस्था मिनाप नाटक करय ताहिमे कोनो एकटा खास व्यक्तिक मात्र नाटक खेलायल जाइक। एही वर्चस्ववादी रीतिकेँ तोड़बाक आ मानसिकताकेँ जाग्रत करबाक उद्देश्यें ओ एक समयमे नाटक लिखबा पर जोर देलनि।" ई एकटा खास व्यक्ति मलंगिया जी थिका, मलंगिया जी नेपाली राजशाही कालमे लेखकीय प्रतिबद्धताकेँ नै निमहा सकला आ राजनैतिक रूपसँ सत्ता पक्षक नाटक लिखलनि आ खयाल रखलनि जे दर्शक हँसय मात्र सर्वहारापर, सत्ताधीशपर नै। प्रा. परमेश्वर कापड़ि "'मुर्दा' नाटकक युगीन-सन्दर्भ [रमेश रञ्जन- मुर्दा, साल २०६९]" मे लिखै छथि- "डॉ. धीरेन्द्र आ मलंगिया--- अपनाके राजनीतिसँ एतर रखने रहलाह। । तँए हिनका सबके रचनामे, रचनाधर्मितामे, राजनीतिक द्वन्द्वक लबलेस नहि देखाइ दैत अछि।" अही आलेखमे परमेश्वर कापड़ि रमेश रञ्जन आ मलंगिया जीक मादे लिखै छथि- "रमेशजी, मलंगियाके लगमे बहुत दिन धरि रहि रङ्गमञ्चीय सङ्घति करितो, यथार्थ ई अछि जे हिनकापर मलंगियाजीक कोनो छांह-भास नहि पड़ल बुझाइछ। दोसर यथार्थ तऽ इहो अछि जे मलंगियाजीसँ हटल रहले अवस्था आ संस्थामे ई महत्वपर्ण कृतिक रचना कए सकलथि। हमर कहबाक अभिप्राय ई अछि जे मलंगियाजी आ मिनापसँ जहिया रमेशजी अलग भऽ कऽ संकल्पसँ आबद्ध रहथि तहिए एकर रचना (मुर्दा, नाटक, वि.सं.२०५० सालमे) भेल अछि। ध्यातव्य अछि जे मिनाप एखनधरि एकर मञ्चन नहि कऽ सकल।"

ऐ परिस्थितिमे भ्रमर मैथिली नाटककेँ सम्वादक माध्यम बनौलनि, ओकरा लेल एकटा भाषा गढ़लनि जे सर्वहारा लेल अपमानजनक नै वरन गरिमामय छल। राजशाहीक तरमे रहितो आ नेपालक नागरिक रहितो (मलंगियाक कार्यस्थल नेपाल छल मुदा ओ भारतक नागरिक छला) ओ लोकगाथाक माध्यमसँ राजनीतिक विषयवस्तु अपन रचनाधर्मितामे अनलनि।

"भैया, अएलै अपन सोराज" केर पुरुष-१ आ पुरुष-२ सामन्तक बेगारी खटेबाक विरोधमे अछि आ पार्श्वसँ गीत उठै छै-

सभ दिन आई खढ़ कटाबै छै

सात सओ मुसहरबा से

सातो साओ मुसहरकेँ घरमे छागरे पोसल छै, दीना भद्री राजा भरथरीक गीत गबैत योगी रूपमे प्रवेश करै छथि।

तहिना 'महिषासुर मुर्दाबाद' एकल नाटक अछि, जइमे पुरुष-१ अपनो आ पार्श्वसँ बाजल अबाजोक अभिनय कऽ सकैत अछि। एकटा केँ मारने बहुत रास जनमि कऽ ठाढ़ भऽ जाइत अछि, से काज अपूर्ण छै ओइ पात्रक, आ तेँ ओ फाँसी पर अखन नै लटकऽ चाहैए।

लोक नाट्य: जट जटिन (२००७) (शोध) हुनकर फील्डवर्कसँ जुड़ल रहबाक प्रमाण अछि। आ तेँ हुनका नेपालीय मैथिलीक लोकनाट्यधर्मी शेक्सपीयर कहल जाइत अछि।

 

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