प्रणव कुमार झा
आशाक आकाश
सून्न आँखि मे आब तऽ अबैतो नहिं अछि नीर,
के सुनत, केकरा कहू हम अपन मोनक
पीर?
आशाक दीप जरैत रहय छल कहियो जे निशि-दिन,
मिझा गेल मोनक आँगन मे , भेल मलिन
आ क्षीण।
प्राती के जे स्वर उठैत छल हमर मनक मन्दिर मे,
मौन पड़ल अछि कुंठित भऽ कऽ, रुद्ध
कंठक स्वर मे।
प्रणय-पुष्प फुलायल छल जे प्रेमक ऋतु बसंत,
पतझर मे ओ झरि गेल अछि, भेल करुणे
अंत।
दूर सुनाइ पड़ै अछि ई केकर करुण रुदन?
किएक राधा केँ जग मे नहि भेटै छथि मदन?
हमर मोनक मूक व्यथा तोरे स्वागत कऽ लय छी,
पीड़क पातक ठाढि के अपन मुट्ठी मे धऽ लय छी ।
मनुष नहिं जे जीबि रहल बस बनि के जिंदा लाश,
घोर निराशा मे सेहो खोजैय ओ आशाक आकाश।
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