प्रथम मैथिली पाक्षिक ई पत्रिका

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निर्मला कर्ण- अग्नि शिखा (भाग- १५)

निर्मला कर्ण (१९६०- ), शिक्षा - एम् ए, नैहर - खराजपुर,दरभङ्गा, सासुर - गोढ़ियारी (बलहा), वर्त्तमान निवास - राँची,झारखण्ड, झारखंड सरकार महिला एवं बाल विकास सामाजिक सुरक्षा विभाग मे बाल विकास परियोजना पदाधिकारी पद सँऽ सेवानिवृत्ति उपरान्त स्वतंत्र लेखन।
मूल हिन्दी- स्वर्गीय जितेन्द्र कुमार कर्ण, मैथिली अनुवाद- निर्मला कर्ण
 

अग्नि शिखा (भाग - १५)

पूर्व कथा:
पुरंदर आ पुरूरवा क एक संग दानवगण सs युद्ध करवाक लेल मिलाप होय के सूचना भेटला पर पर दानवराज केशि अत्यंत कुपित होइत अछि l ओ एहि बेरक युद्ध में दुनू के पराजित कs अपन भृत्य बनेवाक दृढ़ निश्चय करैत अछि l
आब आगू:
मणि,माणिक,रत्न एवं स्वर्ण जड़ित पर्यंक पर सुतल सुतल पुरूरवा अन्यमनस्क सन होमय लगलाह l ओ एक भृत्य के माध्यम सs अमरपुर भ्रमणक अपन अभिलाषा इंद्र के प्रेषित कयलन्हि l इंद्र अत्यंत प्रसन्न भेलाह l ओ राजाक संगे स्वयँ चलवाक प्रस्ताव कयलन्हि l रथ प्रस्तुत भेल l दुनू गोटे ओहि रथ पर बैस गेलाह l अश्व तीव्र वेग सs चलs लागल l पहिले राजमार्ग पर रथ भागैत रहल,पुन:एक चौक आयल जाहि ठाम सs रथ एक अन्य दिशा में घूमि गेल l आब मार्ग के दुनू कात में उन्नत वृक्ष दृष्टिगत भs रहल छल l ओहि वृक्ष में पारिजात,कल्पवृक्ष समेत विभिन्न प्रकारक अन्य अनेकों वृक्ष छल,जे देखवा में अत्यंत मनोहर लागि रहल छल l रथ किछु देर तक चलैत रहल तत्पश्चात इन्द्रक संकेत पाबि ठमकि गेल।
इन्द्र पुरूरवा के रथ सs उतरवाक संकेत कयलन्हि। पुरूरवा रथ सs उतरि गेलाह l दुनू आब नंदनकानन के दिशा में प्रस्थित भs रहल छलाह l इन्द्र मार्गक दुनू कात लागल वृक्ष सबहक फलपुष्प के विषय में जानकारी पुरूरवा के दs रहल छलाह l
उद्यान के मध्य में अनेक स्वर्ण निर्मित सिंहासन अवस्थित छल l ओहि में सs दूटा सिंहासन पर ई दुनू बैस गेलाह l सारथी सs इन्द्र किछु कहलन्हि,सारथी चलि गेल l किछु देरी के बाद किछु दिव्य फल पुरूरवाक समक्ष सारथी प्रस्तुत कयलक l एक फल पुरूरवा खेलथि। फल खाइतहि मात्र ओ अपना में स्फूर्ति के अनुभव करs लगलन्हि l ई फल के खाइतहि मात्र हुनक शरीर में अपरिमित शक्ति के संचार होमय लागल l पुरूरवा एहि अनुभव सs आश्चर्यचकित भय गेल छलाह । इन्द्र के संग समसामयिक विषय पर चर्चा करैत रहलाह किछु काल धरि । तत्पश्चात ओ अपन समक्ष के रमणीक विहंगम दृश्य पर दृष्टिपात कयलन्हि। निकट में एक रमणीय सरोवर छल,जाहि में भांति-भांति के पुष्प मुकुलित छल। ओ सभ पुष्प पृथ्वीक पर अलभ्य छल l
पुरूरवा ओहि सरोवरक दिशा में प्रस्थान केलथि, इन्द्र अपना स्थान पर बैसल एक पुष्पक सुरभि सs अपना के प्रफुल्लित करवा में व्यस्त छलाह l सरोवर के निकट पहुँचि पुरूरवा चारु दिशा में दृष्टिपात कएल,मुदा हुनका अन्य कोनो जीवक उपस्थिति के आभास नहि भेलन्हि l ओ पुष्कारिणी के घाट पर बैस अपन दुनू पैर के जल में डुबा लेलथि l हुनका अत्यन्त आनंदक अनुभूति भेलन्हि l पुष्कारिणीक मनोहर दृश्यावली के अवलोकन में व्यस्त पुरूरवा एहि बात सs अनभिज्ञ छलाह कि दूटा सुंदर नेत्र हुनका निर्निमेष निहारि रहल छल। ओहि नेत्रक स्वामिनी के मुग्ध दृष्टि हुनक शरीर के छू रहल छल l
उर्वशी चित्रलेखा के संगे ओहि पुष्कारिणी में स्नान करवा हेतु आयल छलीह ,मुदा हिनका सबहक रथ के देखि एक झुरमुट के निकट चित्रलेखा के संग चुपचाप बैस गेलीह l उर्वशी अपन दृष्टि उठा कs जतेक बेरि पुरूरवा के देखथि हुनक सुंदरता में हुनका ओतबहि अधिक अभिवृद्धि दृष्टिगत होइन्ह। ओ भाव विमुग्ध भs उठलीह l चित्रलेखा उर्वशी के मोनक भाव पढ़वाक प्रयास कयलथि,मुदा असफल रहलथि l ओना उत्सुकता तs हुनको छलन्हि पुरुरवा के देखवाक l उर्वशी अपन स्वर केअत्यन्त धीमा करैत बजलीह चित्रलेखा संs -
"वाह कतेक सुंदर रुप छन्हि ,कतेक बलिष्ठ दुनू भुजा l कतेक उन्नत हृदय-स्थल l पौरुष में तs पुरूरवा बढ़ल -चढ़ल छथि l देवर्षि नारदक प्रशंसा सs अधिकहि पाबि रहल छी सखि।"
"हँ ! तों सत्ते कहलह सखि! एहन पुरुष तs हमहूँ आई धरि नहि देखने छलहुँ l अपन राजा इन्द्र पर्यन्त एहन नहि छथि।" चित्रलेखा सेहो अभिभूत छलीह।
"हुँssss इन्द्र तs हिनक पगधूलि के बराबर नहि छथि।"
किछु क्षण ओतह बैसला उपरान्त चित्रलेखा बाजि उठलीह- "हमसब कखन तक बैसल रहब एतह, चलs सखि मानसरोवर पर अपना सब स्नान कs ली।"
" नहि-नहि! एतहि बैसs ने किछु देरी,आर दोसर ठाम किएक जयबह ?"  उर्वशी चित्रलेखा के रोकैत बाजि उठलीह।
उर्वशी पुरूरवा के देखबा में अपना के विस्मृत केने छलीह । हुनक ह्रदय में मधुर-मधुर सन किछु दर्दक अनुभूति भs रहल छलन्हि l हुनक मोनक दशा विचित्र छल। एक मोन में इच्छा होइन्हि पुरूरवा के देखिते रsही। दोसर मोन कहन्हि शीघ्र पुरुरवा के हृदय सs लपटाय हुनका आलिंगनबद्ध कs लथि l ओहि दशा में समय व्यतीत होइत जाय l मुदा हुनक एहि इच्छाक पूर्ति भेनाई संभव नहि छल l ओ तs मात्र मोनक कल्पना छल!जे मोनहि में रहल!
पुरूरवा उठि कs ठाढ़ भs गेलाह। ओ एक गोट सुंदर पुष्प अपन हाथ में नेने इन्द्र के दिशा में प्रस्थान केलथि -
"अत्यन्त सुंदर उद्यान अछि अपनेक" - भाव विभोर होइत पुरूरवा इन्द्र सs कहलथि। इन्द्र मात्र बिहुँसैत रहलाह l तत्पश्चात पुरूरवा आपस जयवा हेतु उद्यत भs गेलाह l इन्द्र स्वयं आपस जयवा हेतु व्यग्र छलाह। ओ अपन अनेक आवश्यक कार्य छोड़ि कs एतह आयल छलाह l युद्धक तैयारी वास्ते उचित निर्देश जे देमs के छलन्हि हुनका अपन सेना के l दुनू गोटे रथ पर आरूढ़ भs पुनः आपस चलि भेलाह, - इन्द्रक नगरी अमरावतीक दिशा में l
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सैन्य व्यूह रचल सुसज्जित देवतागणक रथ,घोड़ा,हाथी सभ प्रस्थान केलक l पुरूरवा अपन विष्णु प्रदत्त रथ पर विराजमान छलाह l ई रथ इन्द्रक रथ सs अधिक सुंदर छल l सेना के प्रयाणक काल शची इन्द्र के रोली,अक्षत,गोरोचन आदि के मंगल टीका लगौलन्हि l पुरूरवा सुंदर अप्सरा सभ के देखि रहल छलाह जे सभ प्रमुख देवगण के मंगलटीका लगा रहल छलीह l ओहि सितारा सम जगमगाइत अप्सराक झुण्ड में हुनक दृष्टि एक पर जाकs स्थिर भय गेल! जेकरा ओ मुग्ध दृष्टि संs देखिते रहि गेलाह - ओ छलीह विस्तृत व्योम में सिताराक मध्य चन्द्रमा सन जगमगाइत !अप्सरा सभ में श्रेष्ठ "उर्वशी"!
उर्वशी मंगल टीका मात्र पुरूरवा के ललाट पर लगौलीह। उर्वशी सs मंगल टीका लगाबय हेतु पुरूरवा के झुकs पड़लन्हि। बिहुँसैत राजा उर्वशी के कहलथि - "ई नृप आई धरि कतहु नहि झुकल l मुदा अज्ञात अप्सरे ! एक मात्र आहाँ छी जनिकर सम्मुख ई राजा आई नतमस्तक भेल अछि।"
उर्वशी राजा दिशि देखलथि दुनू के दृष्टि एक दोसर संs क्षण मात्र के लेल मिलल आ पुरूरवा अपन दिल उर्वशी के जादू भरलआँखि में डुबैत अनुभव करs लगलाह l उर्वशी मधुर स्वर में कहलनि -
"कतहु नहि झुकs वला राजा के अपन सम्मुख झुकल पाबि हम अपना के अत्यंत सौभाग्यशालिनी मानैत छी। आई हम धन्य भs गेलहुँ | हम एकर सम्मान रखवाक पूरा प्रयास करब l हमर कामना रहत जे नृपति पुरूरवा हमर अतिरिक्त अन्य केकरो समक्ष नहि झुकथि।"
नृप देखलथि,उर्वशीक नेत्र पनियायल छल! हुनक हृदय कसकि उठल! अन्तस् चित्कार करs लागल! दिल में इच्छा भेलनि ओहि सुंदरीक नेत्र कमल के मुक्तक के अपन उत्तरीय के शोभा बना लेथि! मुदा ई एखनि संभव नहि छल l दिल तs हुनक आर बहुत किछु कहैत छलनि - मुदा ओ सभ किछु समयोचित नहि छल। आई पुरूरवा अपना के लुटायल-हेरायल सन अनुभव कs रहल छलाह! एक बेर अपन समक्ष उठल उर्वशीक ओहि नयन में अपना वास्ते प्रेम,अपनापन,आर कतेको भाव देखि लेलथि पुरूरवा l आई पुरूरवाक ब्रम्हचर्य हुनका जीर्ण भवन सम धराशाई होइत अनुभव भेलनि l
मात्र एक बेर उठल ओ नेत्र-कमल पुरूरवाक हृदय में प्रेमक सागर प्रवाहित कs देलक l उर्वशी के प्रति प्रेम हुनक दिल में हिलकोर मारs लागल। ओ अपन करेज के अपना हाथे थामि कs रथ में प्रविष्ट भेलाह l रथ में प्रविष्ट भेलाक पश्चात ओ देखs चाहलथि उर्वशी के ! मुदा ताs धरि ओ थाल एक मंच पर राखि अप्सराक भीड़ में कतहु गुमि गेल छलीह।
एम्हर उर्वशीक हृदय अपन वश में नहि छलनि l ओ विरह-वेदना सs व्यथित भs उठल छलीह l हृदय में एक हूक सन उठि रहल छलनि l किछु काल धरि ओ अपना के संयत रखवाक प्रयास केलनि ,मुदा सब व्यर्थ भेल । ओ अपना के सम्हारि नहि सकलीह आ आखिर में चेतनाहीन भs धराशाई भय गेलीह l उर्वशीक स्थिति अत्यन्त सोचनीय भय गेल अछि, हुनक बीमारी गंभीर अछि,ई समाचार मात्र अप्सरा तक सीमित नहि रहल l सबहक संग पुरूरवाक कर्ण गोचर भेल ई बात l हुनका ज्ञात भs गेलनि ई प्रेम अग्नि के ज्वाला मात्र हुनके भस्म नहि कs रहल छनि,उर्वशी पर्यन्त एहि ज्वाला सs विदग्ध भेल छथि l ई प्रेमाग्नि दुनू के ह्रदय में एक समान प्रज्वलित अछि l
एम्हर इन्द्र उर्वशीक ई स्थिति देख एक अप्सरा के हुनका उठाकs हुनक कक्ष में लs जाई के वास्ते एवं उचित चिकित्सा कराबय के संकेत केलनि l ओ एहि घटना के अमंगल सूचक बूझs लगलाह l परंच ओ युद्ध के स्थगित करवा में असमर्थ छलाह। किएक त युद्ध प्रयाणक उचित मंगल लग्न केर लग्न-संकेत पुरोहित केलनि l ताहि संs क्रोधाविष्ट इन्द्र सब के युद्ध हेतु प्रयाण करवाक वास्ते कहलनि l दु:ख में विह्वल होइतहूँ पुरूरवा इन्द्र के संगे-संगे युद्ध के वास्ते प्रयाण कयलथि l

क्रमशः

 

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