प्रथम मैथिली पाक्षिक ई पत्रिका

विदेह नूतन अंक
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राज किशोर मिश्र

नव-पुरान

बा ह रे नि खि ध मड़ुआ !
जगलै ओकर भा ग,
अन्तर्रा ष्ट्री य भो ज मे,
पहि रा ओल गेलै पा ग।

ता मक था री -बा टी सभ,
सजल डा इनिं ग-टेबुल पर,
महा भा रतक पुनः प्रसा रण,
देखि रहल लो क केबुल पर।

सद्यः देवता वरेण्य सवि तुः ,
प्रा तः का ल सूर्य-नमस्का र,
संगे -संग वि ज्ञा नक उदय,
नवका -नवका आवि ष्का र।

नव पी ढ़ी केँ पुरा न पी ढ़ी सँ
छै की को नो अरा रि ?
बा त के, हो इत अछि बतङ्ङड़ ,
बा त लेल कि ए मा रि ?

हो न्हि स्वा गत मो न सँ,
नव शि ल्पी केँ ,नव सा हि त्यका र,
न्या य हो अए ,ने कि जुग-जुग सँ
बस हो न्हि अहि ल्या केॅं उद्धा र।

पहि नो शां ति क छलैक खगता ,
ओहि ना तँ अछि एखनो ,
असभ्यता मे छलैक हिं सा ,
जे बा त एखन, सएह तखनो ।

नव्यता वर्चस्व लेल,
अछि बड़ भेल अपसि आँत,
पुरना चा उरक इडली कहि आ
लगलै ककरो , अनसो हाँ त?

धर्म स्था पना बेर-बेर ,
मुक्ति क नव -नव पंथ,
पुरा न बा टक जी र्णो द्धा र,
उगला ह नबका महंथ।

फूलो मा ए छलथि न बुधि आरि ,
पिं की मा ए छथि न बुधि आरि ,
कुरुक्षेत्र मे भेल महा भा रत,
खेत-पथा र लेल एखनो मा रि ।

लो भ, क्रो ध सभटा जी बि ते अछि ,
बदलि गेलैक बा ना ,
सा सु-पुतो हु मे एखनो ओहि ना ,
एक दो सर के ता ना ।

धर्महि सँ हर तथ्यक व्या ख्या ,
वि ज्ञा न तो ड़लक रूढ़ि वा द,
परञ्च मनुक्ख आ प्रकृति बी च मे,
बढ़ि रहल अछि कटु संवा द।

जुग अछि अपन जो गा ड़ मे,
लऽ ली सभटा श्रेय,
अती तक प्रेत घूमैछ बनि
'उपमा न' ने कि 'उपमेय'।

पूर्व मे जनमल अर्थ-तंत्र,
पूर्वहिँ सभ्यता जनमल,
जो ड़ल गेल, कि छु तो ड़ल गेल,
का ल ने बैसल कलबल।

कतेक पुरा न ब्रह्मां ड अछि ?
अछि की एखनो नऽव?
बूढ़ भेला ह आब सूर्य की ?
ता रा गण भेलथि दऽब ?

बयस भ' गेलै चन्द्रमा के ?
कि चमकत एखनो पुरनके चा न?
आकि आओत, नव पी ढ़ी क लेल
नवका वि धु जे हो एत जुआन?

बूढ़बा ठूट्ठा गा छ रहत,
कि ओकरे सा रा पर तरुण तरु ?
ओ ठहुरी भ' जा रनि बनि जा एत ,
आ' द्रुम नवतुरि आ , सएह बरु ?

भूमि -उर्वरता नूतन अछि , की
प्रकृति जा इत छथि झखरल ?
कि छु बा त तँ अछि ओहन,
जे मा नव जा ति केँ अखड़ल ।

पुरा न नचैत अछि अपन परि धि मे,
नवका के अछि अपने ता ल,
ककर महत्व ककरा सँ कम अछि ?
महा पञ्च छथि एक्कर का ल।

ओहो नी क, कि छु नी क इहो ,
दूनू मि लि कऽ महो -महो ।

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