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कल्पना झा

सिनुरहार- एखनहुँ प्रासंगिक

हम अपन जीवन मे मात्र दुइए बेर सिनुरहार होइत देखने छी। होइत की, माने कएल अछि सिनुरहार दू बेर। मतलब कर्ता रूप मे परिचित भेलहुँ पहिले-पहिल "सिनुरहार" शब्द सँ, सिनुरहारक प्रक्रिया सँ। सन् २००० मे पहिल बेर दोसर बेर सन् २००६ मे। सासु गामक लोक जेना-जेना बता देलनि, तेना-तेना करैत गेलहुँ, अपन दुनू बौआक मूड़न यज्ञोपवीत संस्कार मे। हजारीबाग पटना नैहर-सासुर रहने गाम-समाजक काज मे उपस्थितिक अवसर ततेक भेटल नहि कहियो। हमर अप्पन गाम वा नानीगाम मे सिनुरहारक परम्परा छैक नहि। मिथिला मे गाम-गामक बिध-व्यवहार माने एहि तरहक लौकिक परम्परा मे भिन्नता होएब कोनो नब बात नहि। कोनो-कोनो गाम मे मूड़न-उपनैन सँ एक राति पहिले भगता खेलाइत छैक। कोनो गाम मे ओहिना भगवतीक आराधना ' बरुआ बरुआ माएक नब वस्त्र राखल जाइत छैक भगवतीक सीर लग। तहिना मूड़न-उपनैनक अवसर पर कोनो गाम मे खीर-पूड़ी-मधुरक पातरि पड़ल, तँ कोनो गाम मे बलिप्रदानक रिवाज। हमर सासुर मढ़िया मे ओहने सिनुरहार होइत छैक जेहन सिनुरहारक चित्रण शिवशंकर श्रीनिवास जी अपन कथा "सिनुरहार" मे कएने छथि। भरि गामक सभ अहिबाती केँ हकारि ' बजाओल जाएत सभ एक लाइन सँ ठाढ़ रहतीह। भगवती घर सँ ओसारा पार करैत आँगन धरि चलि जाइत छलए अहिबातीक पाँती। सभ अहिबाती केँ तेल-सिंदुर-धाँसा कएल जाए तकर बाद सभ केँ नब रुमाल पर खीर-पूड़ी, गुड़-चाउर, सुपारीक टूक सिक्का दैत अपन आँचरक खूट पर लोटा ' ' सभक पैर कनि-कनि जल दैत आशीर्वाद लेबाक प्रक्रिया भेल सिनुरहार।

 

से कथा "सिनुरहार" पढ़ि अपन दुनू बौआक मूड़न उपनैनक दृश्य आँखिक सोझाँ नाचि गेल। जे निस्संदेह सुखद अनुभूति देलक। विस्मृत सन ' गेल छलए जीवनक आपा-धापी मे।

कथा "सिनुरहार" बुनावट एकदम कसल छनि। कथा बूनब भात-दालिक कौर नहि छैक। बहुत पापड़ बेलए पड़ैत छैक, तखन एकटा नीक कथाक सृजन संभव होइत छैक। कथानकक चयन, भाषा, शिल्प, सभ किछु मे एकटा संतुलन हुअए कथाक माध्यम सँ समाजक लेल जे संदेश देल जा रहल अछि, से स्पष्ट हुअए, तखन बनैत छैक एकटा उत्तम कथा। एहि कथा "सिनुरहार" पाठ करैत हमर ध्यान केन्द्रित रहल लेखकक लेखन-शैली पर। एकटा सामान्य सन कथानकक आधार पर अद्भुत कथाक सृजन कएलनि अछि श्री शिवशंकर श्रीनिवास जी। हमरा जनैत कोनो कथा केँ विलक्षण बनबैत छैक लिखबाक शैलीए। कखनोकाल देखबा मे आबैत छैक जे कथानक बहुत जबरदस्त रहितहुँ कथा ओतेक जानदार/शानदार नहि बनि पाबैत छैक। कारण बस एक्कहि टा रहैत छैक, कथाक भटकल सन, छिड़िआएल सन शिल्प। एहि तरहक चूक मजबूत कथानक केँ सेहो कमजोर कथा मे परिणत ' दैत छैक।

 

उक्त कथा "सिनुरहार" संग उन्टा बात देखा रहल अछि हमरा। सामान्य सन कथानक केँ नीक ढंग सँ प्रस्तुत कएलनि अछि लेखक। प्रशंसनीय अछि! एहि कथाक माध्यम सँ कथाकार पाठकक ध्यान एहि बात दिस आकृष्ट करबाक प्रयास कएलनि अछि जे स्त्रीए स्त्रीक शत्रु तँ नहि कहि सकैत छी मुदा एकटा स्त्री केँ मानसिक/शारीरिक प्रताड़ना देबा मे स्त्रीए आगाँ रहैत छथि। पुरुष प्रायः बचावे करबा लेल तत्पर देखा पड़ैत छथि। एहि बात मे संशय केर एक रत्ती गुंजाइश नहि अछि। बहुत रास एहन घटना हमरो आँखिक देखल अछि। किछु कान सँ सुनल सेहो अछि। विशेष रूप सँ एकटा स्त्री केँ सासुर मे सासु ननदिए मिलि उलाउ-चुलाउ करैत छथि जेनरली। ससुर-भैंसुर-देओर विरले कोनो घरक एहन करैत हेताह।

ओना एहि कथा मे तँ सासु द्वारा पुतहुक नहि, माए द्वारा अपन बेटीक उपेक्षा करैत देखाओल गेल अछि। एकर विश्वसनीयता पर कोनो प्रश्न चिन्ह नहि लगाओल जा सकैत अछि। अपन मिथिला मे होइत छैक एहनो। समाजक डर, संभावित अमंगलक डर, एकर मूल कारण देखाइत अछि।

अपन मिथिला मे घरक पुरुख लेल पाबनि-तिहार, व्रत-उपास करबाक परम्परा रहल छैक। पुरुखक स्वस्थ रहबाक कामना, दीर्घायु होएबाक कामना करब स्त्रीक धर्म रहल छैक। अदौकाल सँ स्त्रीगण बेटा पतिक लेल अपन देह केँ साधैत रहलीह अछि। तैँ कोनो स्त्री अपन घरक पुरुख केँ अमंगलक छायो सँ दूर राखबाक लेल बेहाल रहैत छथि सदिखन। इएह कारण अछि जे अपशकुनक डरेँ माए सिनुरहारक प्रक्रिया सँ कल्याणी केँ दूरे राखब उचित बुझलनि। कोनो तरहक अमंगलक डर सँ डेराएल माए बेटीक हृदय आहत करबा मे एक रत्ती संकोच नहि करैत छथि। जखन रामभद्र बाबू टोकैत छथिन तँ पत्नीक उतारा छनि, " हमर बेटी छी। कर्म फुटलै जोड़ि देलियै। धर्म-अधर्मक कोनो विचार नहि कएलियै।" पति पर खिसिआइत बाजैत छथि, " ऐहबक पूजा छियै, भगवतीक पूजा। ओकरा दुआरे हम अपन बेटा के अमंगल नहि होमए देबैक।"

माएक मुहेँ एहन बात सुनि कल्याणी तत्क्षण ओहि ठाम सँ विदा ' जेबाक नेआर करए लागैत छथि, मोने-मोन। मुदा फेर सोचए लागैत छथि, "माए हमरा अमंगल बुझि रहलीह अछि? पिता कहाँ अमंगल बुझैत छथि!"

माएक एहन सोचक पाछाँक मूल कारण अछि पुत्र-प्रेम! बेटा सँ वंश चलैत छै, बेटा कुल के दीपक होइत छै, बुढ़ापा मे माए-बापक सहारा बेटे होइत छै, एहि सभ तरहक धारणा अपन मैथिल समाज मे व्याप्त रहल अछि। मैथिले टा नहि संपूर्ण भारतवर्ष मे कमोबेश एहने स्थिति छैक। ओना आब समय बहुत बदलि गेलैए: बदलि रहलैए। सभ सँ बड़का बदलाव एलैए जे आब बेटाक आस मे पाँच टा, छओ टा बेटीक लाइन लगाएब नहि देखाइत अछि कत्तहु।

एम्हरे दू - चारि दिन पहिने वरिष्ठ रचनाकार विभा रानीक फेसबुक पोस्ट अभरल, जाहि मे एहि धारणा केँ (समाज मे स्त्री द्वारा स्त्रीक प्रताड़ना कएल जेबाक) "पितृसत्तात्मकता का खेल" कहलनि अछि। हुनकर कहब छनि जे पुरुषे लोकनि, एहि तरहक बात (स्त्रीए स्त्रीक शत्रु होइछ) स्त्रीगणक दिमाग मे भरि देने छथि। एहि तरहक धारणा बना देलनि अछि पुरुष-वर्ग, अपन उल्लू सीधा करबाक लेल। आगाँ दलील दैत कहि रहलीह, जे वर्चस्वक लड़ाइ जहिना दू गोट महिलाक बीच रहैत छैक तहिना दू टा पुरुषोक बीच रहैत छैक। सभ कार्यक्षेत्र मे एहन देखबा लेल भेटैत छैक। मुदा पुरुषक लेल आइ धरि नहि कहल गेलए जे, "पुरुषे पुरुषक दुश्मन होइत छैक।" 'एहि बात केँ बुझू', से कहैत स्त्रीगण केँ ललकारैत सन पोस्ट बुझाएल हमरा।

विभा रानीक शब्द मे,"आज भी यह जुमला 'औरत ही औरत की दुश्मन है' फेंक दिया जाता है। हम औरतों को इससे बचने, इसके नैरेटिव को समझने और अपने विचार को दुरुस्त करने की ज़रूरत है, अन्यथा हमारी बादवाली पीढ़ियाँ भी यही सुनने के लिए अभिशप्त होती रहेंगी कि 'औरत ही औरत की दुश्मन है'"

हिनका सन बहुत महिला रचनाकार छथि जे स्त्री सँ जुड़ल सभ समस्याक जड़ि अपन मैथिल समाजक "पितृसत्तात्मक" होएबा केँ मानैत छथि। हमर कहब अछि, जैँ समाज पितृसत्तात्मक अछि तैं स्त्रीक मान-सम्मान बाँचल अछि। स्त्रीक सत्ता मे तँ भगवाने मालिक बुझू ! खैर, आब एहि बात केँ विराम देब ठीक। बेसी खोंइचा छोड़ेबाक बेगरता नहि अछि एहिठाम।

एहि कथाक प्रासंगिकताक गप्प करी तँ कथा "सिनुरहार" एखनहुँ ओतबे प्रासंगिक अछि, जतेक लिखल जेबा काल रहल होएत। भले ही आब एहन कोनो अनिष्ट भेलाक बाद पुनर्विवाह करबा देब सामान्य बात ' गेल अछि, मतलब एक्सेप्टेबल ' गेल अछि समाज मे। अपन मैथिल समाज मे सेहो। मुदा ओहि स्त्रीक संग स्त्रीगण द्वारा उपेक्षित व्यवहार करब जारी अछि। से ओकर नैहर परिवार होइक वा समाजक लोक, मान-सम्मान नहि भेटैत छैक ओकरा जे एकटा सामान्य ऐहब केँ लोक दैत छैक।

कथा मे नकारात्मक पक्ष, माने त्रुटि ताकैत रहि गेलहुँ किछु अभरल नहि तेहन। कथानक, चरित्र-चित्रण, शिल्प-शैली सभ परफेक्ट !

 

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